Niyamsar (Hindi). Gatha: 172.

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गाथा : १७१ अन्वयार्थ :[आत्मानं ज्ञानं विद्धि ] आत्माको ज्ञान जान,
और [ज्ञानम् आत्मकः विद्धि ] ज्ञान आत्मा है ऐसा जान; [न संदेहः ] इसमें संदेह
नहीं है [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं ] ज्ञान [तथा ] तथा [दर्शनं ] दर्शन
[स्वपरप्रकाशं ] स्वपरप्रकाशक [भवति ] है
टीका :यह, गुण - गुणीमें भेदका अभाव होनेरूप स्वरूपका कथन है
हे शिष्य ! सर्व परद्रव्यसे पराङ्मुख आत्माको तू निज स्वरूपको जाननेमें समर्थ
सहजज्ञानस्वरूप जान, तथा ज्ञान आत्मा है ऐसा जान इसलिये तत्त्व (स्वरूप ) ऐसा
है कि ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्वपरप्रकाशक हैं इसमें सन्देह नहीं है
[अब इस १७१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] आत्माको ज्ञानदर्शनरूप जान और ज्ञानदर्शनको आत्मा जान; स्व
और पर ऐसे तत्त्वको (समस्त पदार्थोंको ) आत्मा स्पष्टरूपसे प्रकाशित करता है २८७
आत्मानं विद्धि ज्ञानं ज्ञानं विद्धयात्मको न संदेहः
तस्मात्स्वपरप्रकाशं ज्ञानं तथा दर्शनं भवति ।।१७१।।
गुणगुणिनोः भेदाभावस्वरूपाख्यानमेतत
सकलपरद्रव्यपराङ्मुखमात्मानं स्वस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानस्वरूपमिति हे शिष्य
त्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञानमात्मेति जानीहि तत्त्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्र
संदेहो नास्ति
(अनुष्टुभ्)
आत्मानं ज्ञानद्रग्रूपं विद्धि द्रग्ज्ञानमात्मकं
स्वं परं चेति यत्तत्त्वमात्मा द्योतयति स्फु टम् ।।२८७।।
जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो
केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो ।।१७२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३४५
जानें तथा देखें तदपि इच्छा विना भगवान है
अतएव ‘केवलज्ञानी’ वे अतएव ही ‘निर्बन्ध’ है ।।१७२।।