गाथा : १७१ अन्वयार्थ : — [आत्मानं ज्ञानं विद्धि ] आत्माको ज्ञान जान,
और [ज्ञानम् आत्मकः विद्धि ] ज्ञान आत्मा है ऐसा जान; — [न संदेहः ] इसमें संदेह
नहीं है । [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं ] ज्ञान [तथा ] तथा [दर्शनं ] दर्शन
[स्वपरप्रकाशं ] स्वपरप्रकाशक [भवति ] है ।
टीका : — यह, गुण - गुणीमें भेदका अभाव होनेरूप स्वरूपका कथन है ।
हे शिष्य ! सर्व परद्रव्यसे पराङ्मुख आत्माको तू निज स्वरूपको जाननेमें समर्थ
सहजज्ञानस्वरूप जान, तथा ज्ञान आत्मा है ऐसा जान । इसलिये तत्त्व ( – स्वरूप ) ऐसा
है कि ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्वपरप्रकाशक हैं । इसमें सन्देह नहीं है ।
[अब इस १७१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] आत्माको ज्ञानदर्शनरूप जान और ज्ञानदर्शनको आत्मा जान; स्व
और पर ऐसे तत्त्वको (समस्त पदार्थोंको ) आत्मा स्पष्टरूपसे प्रकाशित करता है ।२८७।
आत्मानं विद्धि ज्ञानं ज्ञानं विद्धयात्मको न संदेहः ।
तस्मात्स्वपरप्रकाशं ज्ञानं तथा दर्शनं भवति ।।१७१।।
गुणगुणिनोः भेदाभावस्वरूपाख्यानमेतत् ।
सकलपरद्रव्यपराङ्मुखमात्मानं स्वस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानस्वरूपमिति हे शिष्य
त्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञानमात्मेति जानीहि । तत्त्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्र
संदेहो नास्ति ।
(अनुष्टुभ्)
आत्मानं ज्ञानद्रग्रूपं विद्धि द्रग्ज्ञानमात्मकं ।
स्वं परं चेति यत्तत्त्वमात्मा द्योतयति स्फु टम् ।।२८७।।
जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो ।
केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो ।।१७२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३४५
जानें तथा देखें तदपि इच्छा विना भगवान है ।
अतएव ‘केवलज्ञानी’ वे अतएव ही ‘निर्बन्ध’ है ।।१७२।।