गाथा : १७२ अन्वयार्थ : — [जानन् पश्यन् ] जानते और देखते हुए भी,
[केवलिनः ] केवलीको [ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक (वर्तन ) [न भवति ] नहीं होता;
[तस्मात् ] इसलिये उन्हें [केवलज्ञानी ] ‘केवलज्ञानी’ कहा है; [तेन तु ] और इसलिये
[सः अबन्धकः भणितः ] अबन्धक कहा है ।
टीका : — यहाँ, सर्वज्ञ वीतरागको वांछाका अभाव होता है ऐसा कहा है ।
भगवान अर्हंत परमेष्ठी सादि - अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्ध-
सद्भूतव्यवहारसे केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंके आधारभूत होनेके कारण विश्वको निरन्तर जानते
हुए भी और देखते हुए भी, उन परम भट्टारक केवलीको मनप्रवृत्तिका (मनकी प्रवृत्तिका,
भावमनपरिणतिका ) अभाव होनेसे इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान
‘केवलज्ञानी’ रूपसे प्रसिद्ध हैं; और उस कारणसे वे भगवान अबन्धक हैं
।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत ) श्री प्रवचनसारमें (५२वीं गाथा
द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] (केवलज्ञानी ) आत्मा पदार्थोंको जानता हुआ भी उन - रूप
परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थोंरूपमें उत्पन्न नहीं होता इसलिये
उसे अबन्धक कहा है ।’’
जानन् पश्यन्नीहापूर्वं न भवति केवलिनः ।
केवलज्ञानी तस्मात् तेन तु सोऽबन्धको भणितः ।।१७२।।
सर्वज्ञवीतरागस्य वांछाभावत्वमत्रोक्त म् ।
भगवानर्हत्परमेष्ठी साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि-
शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात् विश्वमश्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनःप्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं
वर्तनं न भवति तस्य केवलिनः परमभट्टारकस्य, तस्मात् स भगवान् केवलज्ञानीति प्रसिद्धः,
पुनस्तेन कारणेन स भगवान् अबन्धक इति ।
तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे —
‘‘ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अट्ठेसु ।
जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ।।’’
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-