अब (इस १७२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] सहजमहिमावंत देवाधिदेव जिनेश लोकरूपी भवनके भीतर
स्थित सर्व पदार्थोंको जानते हुए भी, तथा देखते हुए भी, मोहके अभावके कारण समस्त
परको ( – किसी भी परपदार्थको ) नित्य ( – कदापि ) ग्रहण नहीं ही करते; (परन्तु )
जिन्होंने ज्ञानज्योति द्वारा मलरूप क्लेशका नाश किया है ऐसे वे जिनेश सर्व लोकके एक
साक्षी ( – केवल ज्ञातादृष्टा ) हैं ।२८८।
गाथा : १७३-१७४ अन्वयार्थ : — [परिणामपूर्ववचनं ] परिणामपूर्वक (मन-
परिणाम पूर्वक ) वचन [जीवस्य च ] जीवको [बंधकारणं ] बन्धका कारण [भवति ]
तथा हि —
(मंदाक्रांता)
जानन् सर्वं भुवनभवनाभ्यन्तरस्थं पदार्थं
पश्यन् तद्वत् सहजमहिमा देवदेवो जिनेशः ।
मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति नित्यं
ज्ञानज्योतिर्हतमलकलिः सर्वलोकैकसाक्षी ।।२८८।।
परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ ।
परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ।।१७३।।
ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ ।
ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ।।१७४।।
परिणामपूर्ववचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति ।
परिणामरहितवचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ।।१७३।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३४७
रे बन्ध कारण जीवको परिणामपूर्वक वचन हैं ।
है बन्ध ज्ञानीको नहीं परिणाम विरहित वचन है ।।१७३।।
है बन्ध कारण जीवको इच्छा सहित वाणी अरे ।
इच्छा रहित वाणी अतः ही बन्ध नहिं ज्ञानी करे ।।१७४।।