[श्लोकार्थ : — ] इनमें (केवली भगवानमें ) इच्छापूर्वक वचनरचनाका स्वरूप
नहीं ही है; इसलिये वे प्रगट - महिमावंत हैं और समस्त लोकके एक (अनन्य) नाथ हैं ।
उन्हें द्रव्यभावस्वरूप ऐसा यह बन्ध किसप्रकार होगा ? (क्योंकि) मोहके अभावके कारण
उन्हें वास्तवमें समस्त रागद्वेषादि समूह तो है नहीं ।२८९।
[श्लोकार्थ : — ] तीन लोकके जो गुरु हैं, चार कर्मोंका जिन्होंने नाश किया है और
समस्त लोक तथा उसमें स्थित पदार्थसमूह जिनके सद्ज्ञानमें स्थित हैं, वे (जिन भगवान)
एक ही देव हैं । उन निकट (साक्षात्) जिन भगवानमें न तो बन्ध है न मोक्ष, तथा उनमें न
तो कोई १मूर्छा है न कोई २चेतना (क्योंकि द्रव्यसामान्यका पूर्ण आश्रय है ) ।२९०।
[श्लोकार्थ : — ] इन जिन भगवानमें वास्तवमें धर्म और कर्मका प्रपंच नहीं है
(अर्थात् साधकदशामें जो शुद्धि और अशुद्धिके भेदप्रभेद वर्तते हैं वे जिन भगवानमें नहीं
(मंदाक्रांता)
ईहापूर्वं वचनरचनारूपमत्रास्ति नैव
तस्मादेषः प्रकटमहिमा विश्वलोकैकभर्ता ।
अस्मिन् बंधः कथमिव भवेद्द्रव्यभावात्मकोऽयं
मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषादिजालम् ।।२८९।।
(मंदाक्रांता)
एको देवस्त्रिभुवनगुरुर्नष्टकर्माष्टकार्धः
सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम् ।
आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्षः
तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च ।।२९०।।
(मंदाक्रांता)
न ह्येतस्मिन् भगवति जिने धर्मकर्मप्रपंचो
रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतरागः ।
एषः श्रीमान् स्वसुखनिरतः सिद्धिसीमन्तिनीशो
ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात् ।।२९१।।
१ — मूर्च्छा = अभानपना; बेहोशी; अज्ञानदशा ।
२ — चेतना = सभानपना; होश; ज्ञानदशा ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३४९