हैं ); रागके अभावके कारण अतुल - महिमावन्त ऐसे वे (भगवान) वीतरागरूपसे विराजते
हैं । वे श्रीमान् (शोभावन्त भगवान) निजसुखमें लीन हैं, मुक्तिरूपी रमणीके नाथ हैं और
ज्ञानज्योति द्वारा उन्होंने लोकके विस्तारको सर्वतः छा दिया है । २९१ ।
गाथा : १७५ अन्वयार्थ : — [केवलिनः ] केवलीको [स्थाननिषण्णविहाराः ]
खड़े रहना, बैठना और विहार [ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक [न भवन्ति ] नहीं होते, [तस्मात् ]
इसलिये [बंध न भवति ] उन्हें बन्ध नहीं है; [मोहनीयस्य ] मोहनीयवश जीवको
[साक्षार्थम् ] इन्द्रियविषयसहितरूपसे बन्ध होता है ।
टीका : — यह, केवली भट्टारकको मनरहितपनेका प्रकाशन है (अर्थात् यहाँ
केवलीभगवानका मनरहितपना दर्शाया है ) ।
अर्हंतयोग्य परम लक्ष्मीसे विराजमान, परमवीतराग सर्वज्ञ केवलीभगवानको
इच्छापूर्वक कोई भी वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान (कुछ) चाहते नहीं हैं, क्योंकि
मनप्रवृत्तिका अभाव है; अथवा, वे इच्छापूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा
श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि ‘अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )’ ऐसा
शास्त्रका वचन है । इसलिये उन तीर्थंकर - परमदेवको द्रव्यभावस्वरूप चतुर्विध बंध
ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो ।
तम्हा ण होइ बंधो साक्खट्ठं मोहणीयस्स ।।१७५।।
स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्वं न भवन्ति केवलिनः ।
तस्मान्न भवति बंधः साक्षार्थं मोहनीयस्य ।।१७५।।
केवलिभट्टारकस्यामनस्कत्वप्रद्योतनमेतत् ।
भगवतः परमार्हन्त्यलक्ष्मीविराजमानस्य केवलिनः परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं न
किमपि वर्तनम्; अतः स भगवान् न चेहते मनःप्रवृत्तेरभावात्; अमनस्काः केवलिनः
इति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्वं श्रीविहारादिकं करोति । ततस्तस्य
३५० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अभिलाषयुक्त विहार, आसन, स्थान जिनवरको नहीं ।
निर्बन्ध इससे, बन्ध करता मोह - वश साक्षार्थ ही ।।१७५।।