Niyamsar (Hindi). Gatha: 175.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो
तम्हा ण होइ बंधो साक्खट्ठं मोहणीयस्स ।।१७५।।
स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्वं न भवन्ति केवलिनः
तस्मान्न भवति बंधः साक्षार्थं मोहनीयस्य ।।१७५।।
केवलिभट्टारकस्यामनस्कत्वप्रद्योतनमेतत
भगवतः परमार्हन्त्यलक्ष्मीविराजमानस्य केवलिनः परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं न

किमपि वर्तनम्; अतः स भगवान् न चेहते मनःप्रवृत्तेरभावात्; अमनस्काः केवलिनः इति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्वं श्रीविहारादिकं करोति ततस्तस्य हैं ); रागके अभावके कारण अतुल - महिमावन्त ऐसे वे (भगवान) वीतरागरूपसे विराजते हैं वे श्रीमान् (शोभावन्त भगवान) निजसुखमें लीन हैं, मुक्तिरूपी रमणीके नाथ हैं और ज्ञानज्योति द्वारा उन्होंने लोकके विस्तारको सर्वतः छा दिया है २९१

गाथा : १७५ अन्वयार्थ :[केवलिनः ] केवलीको [स्थाननिषण्णविहाराः ] खड़े रहना, बैठना और विहार [ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक [न भवन्ति ] नहीं होते, [तस्मात् ] इसलिये [बंध न भवति ] उन्हें बन्ध नहीं है; [मोहनीयस्य ] मोहनीयवश जीवको [साक्षार्थम् ] इन्द्रियविषयसहितरूपसे बन्ध होता है

टीका :यह, केवली भट्टारकको मनरहितपनेका प्रकाशन है (अर्थात् यहाँ केवलीभगवानका मनरहितपना दर्शाया है )

अर्हंतयोग्य परम लक्ष्मीसे विराजमान, परमवीतराग सर्वज्ञ केवलीभगवानको इच्छापूर्वक कोई भी वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान (कुछ) चाहते नहीं हैं, क्योंकि मनप्रवृत्तिका अभाव है; अथवा, वे इच्छापूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि ‘अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )’ ऐसा शास्त्रका वचन है इसलिये उन तीर्थंकर - परमदेवको द्रव्यभावस्वरूप चतुर्विध बंध

अभिलाषयुक्त विहार, आसन, स्थान जिनवरको नहीं
निर्बन्ध इससे, बन्ध करता मोह - वश साक्षार्थ ही ।।१७५।।