Niyamsar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३५१
तीर्थकरपरमदेवस्य द्रव्यभावात्मकचतुर्विधबंधो न भवति स च बंधः पुनः किमर्थं जातः
कस्य संबंधश्च ? मोहनीयकर्मविलासविजृंभितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति
साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति
तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे
‘‘ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं
अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं ।।’’
(शार्दूलविक्रीडित)
देवेन्द्रासनकंपकारणमहत्कैवल्यबोधोदये
मुक्ति श्रीललनामुखाम्बुजरवेः सद्धर्मरक्षामणेः
सर्वं वर्तनमस्ति चेन्न च मनः सर्वं पुराणस्य तत
सोऽयं नन्वपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः ।।२९२।।

(प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध ) नहीं होता

और, वह बंध (१) किस कारणसे होता है तथा (२) किसे होता है ? (१) बन्ध मोहनीयकर्मके विलाससे उत्पन्न होता है (२) ‘अक्षार्थ’ अर्थात् इन्द्रियार्थ (इन्द्रिय विषय); अक्षार्थ सहित हो वह ‘साक्षार्थ’; मोहनीयके वश हुए, साक्षार्थप्रयोजन (इन्द्रियविषयरूप प्रयोजनवाले) संसारियोंको ही बंध होता है

इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (४४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :

‘‘[गाथार्थ :] उन अर्हंतभगवंतोंको उस काल खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियोंके मायाचारकी भाँति, स्वाभाविक हीप्रयत्न बिना हीहोते हैं ’’

[अब इस १७५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]

[श्लोकार्थ : ] देवेन्द्रोंके आसन कम्पायमान होनेके कारणभूत महा केवल- ज्ञानका उदय होने पर, जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्रीके मुखकमलके सूर्य हैं और सद्धर्मके