साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति ।
मुक्ति श्रीललनामुखाम्बुजरवेः सद्धर्मरक्षामणेः ।
(प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध ) नहीं होता ।
और, वह बंध (१) किस कारणसे होता है तथा (२) किसे होता है ? (१) बन्ध मोहनीयकर्मके विलाससे उत्पन्न होता है । (२) ‘अक्षार्थ’ अर्थात् इन्द्रियार्थ (इन्द्रिय – विषय); अक्षार्थ सहित हो वह ‘साक्षार्थ’; मोहनीयके वश हुए, साक्षार्थप्रयोजन ( – इन्द्रियविषयरूप प्रयोजनवाले) संसारियोंको ही बंध होता है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (४४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] उन अर्हंतभगवंतोंको उस काल खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियोंके मायाचारकी भाँति, स्वाभाविक ही — प्रयत्न बिना ही — होते हैं ।’’
[अब इस १७५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ : — ] देवेन्द्रोंके आसन कम्पायमान होनेके कारणभूत महा केवल- ज्ञानका उदय होने पर, जो मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्रीके मुखकमलके सूर्य हैं और सद्धर्मके