१रक्षामणि हैं ऐसे पुराण पुरुषको सर्व वर्तन भले हो तथापि मन सर्वथा नहीं होता; इसलिये
वे (केवलज्ञानी पुराणपुरुष) वास्तवमें अगम्य महिमावन्त हैं और पापरूपी वनको
जलानेवाली अग्नि समान हैं ।२९२।
गाथा : १७६ अन्वयार्थ : — [पुनः ] फि र (केवलीको) [आयुषः क्षयेण ]
आयुके क्षयसे [शेषप्रकृतीनाम् ] शेष प्रकृतियोंका [निर्नाशः ] सम्पूर्ण नाश [भवति ]
होता है; [पश्चात् ] फि र वे [शीघ्रं ] शीघ्र [समयमात्रेण ] समयमात्रमें [लोकाग्रं ]
लोकाग्रमें [प्राप्नोति ] पहुँचते हैं ।
टीका : — यह, शुद्ध जीवको स्वभावगतिकी प्राप्ति होनेके उपायका कथन है ।
स्वभावगतिक्रियारूपसे परिणत, छह २अपक्रमसे रहित, सिद्धक्षेत्रसम्मुख भगवानको
परम शुक्लध्यान द्वारा — कि जो (शुक्लध्यान) ध्यान - ध्येय - ध्याता सम्बन्धी, उसकी
फलप्राप्ति सम्बन्धी तथा उसके प्रयोजन सम्बन्धी विकल्पोंसे रहित है और निज स्वरूपमें
आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं ।
पच्छा पावइ सिग्घं लोयग्गं समयमेत्तेण ।।१७६।।
आयुषः क्षयेण पुनः निर्नाशो भवति शेषप्रकृतीनाम् ।
पश्चात्प्राप्नोति शीघ्रं लोकाग्रं समयमात्रेण ।।१७६।।
शुद्धजीवस्य स्वभावगतिप्राप्त्युपायोपन्यासोऽयम् ।
स्वभावगतिक्रियापरिणतस्य षटकापक्रमविहीनस्य भगवतः सिद्धक्षेत्राभिमुखस्य
ध्यानध्येयध्यातृतत्फलप्राप्तिप्रयोजनविकल्पशून्येन स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपेण परमशुक्लध्यानेन
आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां निर्नाशो भवति । शुद्धनिश्चयनयेन
१ रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसे अपनेको बचानेके लिये पहिना जानेवाला मणि ।
(केवलीभगवान सद्धर्मकी रक्षाके लिये — असद्धर्मसे बचनेके लिये — रक्षामणि हैं ।)
२ संसारी जीवको अन्य भवमें जाते समय ‘छह – दिशाओंमें गमन’ होता है; उसे ‘‘छह अपक्रम’’ कहा
जाता है ।
हो आयुक्षयसे शेष सब ही कर्मप्रकृति विनाश रे ।
सत्वर समयमें पहुँचते अर्हन्तप्रभु लोकाग्र रे ।।१७६।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-