Niyamsar (Hindi). Gatha: 176.

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रक्षामणि हैं ऐसे पुराण पुरुषको सर्व वर्तन भले हो तथापि मन सर्वथा नहीं होता; इसलिये
वे (केवलज्ञानी पुराणपुरुष) वास्तवमें अगम्य महिमावन्त हैं और पापरूपी वनको
जलानेवाली अग्नि समान हैं
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गाथा : १७६ अन्वयार्थ :[पुनः ] फि र (केवलीको) [आयुषः क्षयेण ]
आयुके क्षयसे [शेषप्रकृतीनाम् ] शेष प्रकृतियोंका [निर्नाशः ] सम्पूर्ण नाश [भवति ]
होता है; [पश्चात् ] फि र वे [शीघ्रं ] शीघ्र [समयमात्रेण ] समयमात्रमें [लोकाग्रं ]
लोकाग्रमें [प्राप्नोति ] पहुँचते हैं
टीका :यह, शुद्ध जीवको स्वभावगतिकी प्राप्ति होनेके उपायका कथन है
स्वभावगतिक्रियारूपसे परिणत, छह अपक्रमसे रहित, सिद्धक्षेत्रसम्मुख भगवानको
परम शुक्लध्यान द्वाराकि जो (शुक्लध्यान) ध्यान - ध्येय - ध्याता सम्बन्धी, उसकी
फलप्राप्ति सम्बन्धी तथा उसके प्रयोजन सम्बन्धी विकल्पोंसे रहित है और निज स्वरूपमें
आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं
पच्छा पावइ सिग्घं लोयग्गं समयमेत्तेण ।।१७६।।
आयुषः क्षयेण पुनः निर्नाशो भवति शेषप्रकृतीनाम्
पश्चात्प्राप्नोति शीघ्रं लोकाग्रं समयमात्रेण ।।१७६।।
शुद्धजीवस्य स्वभावगतिप्राप्त्युपायोपन्यासोऽयम्
स्वभावगतिक्रियापरिणतस्य षटकापक्रमविहीनस्य भगवतः सिद्धक्षेत्राभिमुखस्य
ध्यानध्येयध्यातृतत्फलप्राप्तिप्रयोजनविकल्पशून्येन स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपेण परमशुक्लध्यानेन
आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां निर्नाशो भवति
शुद्धनिश्चयनयेन
१ रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसे अपनेको बचानेके लिये पहिना जानेवाला मणि
(केवलीभगवान सद्धर्मकी रक्षाके लियेअसद्धर्मसे बचनेके लियेरक्षामणि हैं )
२ संसारी जीवको अन्य भवमें जाते समय ‘छहदिशाओंमें गमन’ होता है; उसे ‘‘छह अपक्रम’’ कहा
जाता है
हो आयुक्षयसे शेष सब ही कर्मप्रकृति विनाश रे
सत्वर समयमें पहुँचते अर्हन्तप्रभु लोकाग्र रे ।।१७६।।
३५२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-