अविचल स्थितिरूप है उसके द्वारा — आयुकर्मका क्षय होने पर, वेदनीय, नाम और गोत्र
नामकी शेष प्रकृतियोंका सम्पूर्ण नाश होता है (अर्थात् भगवानको शुक्लध्यान द्वारा
आयुकर्मका क्षय होने पर शेष तीन कर्मोंका भी क्षय होता है और सिद्धक्षेत्रकी ओर
स्वभावगतिक्रिया होती है ) । शुद्धनिश्चयनयसे सहजमहिमावाले निज स्वरूपमें लीन होने पर
भी व्यवहारसे वे भगवान अर्ध क्षणमें (समयमात्रमें ) लोकाग्रमें पहुँचते हैं ।
[अब इस १७६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो छह अपक्रम सहित हैं ऐसे भववाले जीवोंके
( – संसारियोंके ) लक्षणसे सिद्धोंका लक्षण भिन्न है, इसलिये वे सिद्ध ऊ र्ध्वगामी हैं और
सदा शिव (निरन्तर सुखी) हैं ।२९३।
[श्लोकार्थ : — ] बन्धका छेदन होनेसे जिनकी अतुल महिमा है ऐसे (अशरीरी
और लोकाग्रस्थित) सिद्धभगवान अब देवों और विद्याधरोंके प्रत्यक्ष स्तवनका विषय नहीं
ही हैं ऐसा प्रसिद्ध है । वे देवाधिदेव व्यवहारसे लोकके अग्रमें सुस्थित हैं और निश्चयसे
निज आत्मामें ज्योंके त्यों अत्यन्त अविचलरूपसे रहते हैं ।२९४।
[श्लोकार्थ : — ] (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव — ऐसे पाँच परावर्तनरूप)
स्वस्वरूपे सहजमहिम्नि लीनोऽपि व्यवहारेण स भगवान् क्षणार्धेन लोकाग्रं प्राप्नोतीति ।
(अनुष्टुभ्)
षटकापक्रमयुक्तानां भविनां लक्षणात् पृथक् ।
सिद्धानां लक्षणं यस्मादूर्ध्वगास्ते सदा शिवाः ।।२९३।।
(मंदाक्रांता)
बन्धच्छेदादतुलमहिमा देवविद्याधराणां
प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नैव सिद्धः प्रसिद्धः ।
लोकस्याग्रे व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते ।।२९४।।
(अनुष्टुभ्)
पंचसंसारनिर्मुक्तान् पंचसंसारमुक्त ये ।
पंचसिद्धानहं वंदे पंचमोक्षफलप्रदान् ।।२९५।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३५३