इन्द्रियात्मक विजातीय - विभावव्यंजनपर्याय रहित होनेके कारण अक्षय है; प्रशस्त -
अप्रशस्त गतिके हेतुभूत पुण्य - पापकर्मरूप द्वन्द्वका अभाव होनेके कारण अविनाशी है;
वध, बन्ध और छेदनके योग्य मूर्तिसे (मूर्तिकतासे) रहित होनेके कारण अच्छेद्य है ।
[अब इस १७७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं :]
[श्लोकार्थ : — ] अविचल, अखण्डज्ञानरूप, अद्वंद्वनिष्ठ (रागद्वेषादि द्वंद्वमें जो स्थित
नहीं है ) और समस्त पापके दुस्तर समूहको जलानेमें दावानल समान — ऐसे स्वोत्पन्न
(अपनेसे उत्पन्न होनेवाले) दिव्यसुखामृतको ( – दिव्यसुखामृतस्वभावी आत्मतत्त्वको)
— कि जिसे तू भज रहा है उसे — भज; उससे तुझे सकल - विमल ज्ञान (केवलज्ञान) होगा
ही ।२९६।
गाथा : १७८ अन्वयार्थ : — (परमात्मतत्त्व) [अव्याबाधम् ] अव्याबाध,
[अतीन्द्रियम् ] अतीन्द्रिय, [अनुपमम् ] अनुपम, [पुण्यपापनिर्मुक्तम् ] पुण्यपाप रहित,
मूर्तेन्द्रियात्मकविजातीयविभावव्यंजनपर्यायवीतत्वादक्षयम्, प्रशस्ताप्रशस्तगतिहेतुभूतपुण्यपाप-
कर्मद्वन्द्वाभावादविनाशम्, वधबंधच्छेदयोग्यमूर्तिमुक्त त्वादच्छेद्यमिति ।
(मालिनी)
अविचलितमखंडज्ञानमद्वन्द्वनिष्ठं
निखिलदुरितदुर्गव्रातदावाग्निरूपम् ।
भज भजसि निजोत्थं दिव्यशर्मामृतं त्वं
सकलविमलबोधस्ते भवत्येव तस्मात् ।।२९६।।
अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं ।
पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं ।।१७८।।
अव्याबाधमतीन्द्रियमनुपमं पुण्यपापनिर्मुक्त म् ।
पुनरागमनविरहितं नित्यमचलमनालंबम् ।।१७८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३५५
निर्बाध, अनुपम अरु अतीन्द्रिय, पुण्यपापविहीन है ।
निश्चल, निरालम्बन, अमर-पुनरागमनसे हीन है ।।१७८।।