[पुनरागमन-विरहितम् ] पुनरागमन रहित, [नित्यम् ] नित्य, [अचलम् ] अचल और
[अनालंबम् ] निरालम्ब है ।
टीका : — यहाँ भी, निरुपाधि स्वरूप जिसका लक्षण है ऐसा परमात्मतत्त्व
कहा है ।
(परमात्मतत्त्व ऐसा है : — ) समस्त दुष्ट १अघरूपी वीर शत्रुओंकी सेनाके
धांधलको अगोचर ऐसे सहजज्ञानरूपी गढ़में आवास होनेके कारण अव्याबाध (निर्विघ्न)
है; सर्व आत्मप्रदेशमें भरे हुए चिदानन्दमयपनेके कारण अतीन्द्रिय है; तीन तत्त्वोंमें विशिष्ट
होनेके कारण (बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व इन तीनोंमें विशिष्ट — खास
प्रकारका — उत्तम होनेके कारण) अनुपम है; संसाररूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न होनेवाले
सुखदुःखका अभाव होनेके कारण पुण्यपाप रहित है; २पुनरागमनके हेतुभूत प्रशस्त - अप्रशस्त
मोहरागद्वेषका अभाव होनेके कारण पुनरागमन रहित है; ३नित्य मरणके तथा उस भव
सम्बन्धी मरणके कारणभूत कलेवरके (शरीरके) सम्बन्धका अभाव होनेके कारण नित्य
है; निज गुणों और पर्यायोंसे च्युत न होनेके कारण अचल है; परद्रव्यके अवलम्बनका
अभाव होनेके कारण निरालम्ब है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें १३८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
अत्रापि निरुपाधिस्वरूपलक्षणपरमात्मतत्त्वमुक्त म् ।
अखिलदुरघवीरवैरिवरूथिनीसंभ्रमागोचरसहजज्ञानदुर्गनिलयत्वादव्याबाधम्, सर्वात्म-
प्रदेशभरितचिदानन्दमयत्वादतीन्द्रियम्, त्रिषु तत्त्वेषु विशिष्टत्वादनौपम्यम्, संसृति-
पुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाभावात्पुण्यपापनिर्मुक्त म्, पुनरागमनहेतुभूतप्रशस्ताप्रशस्तमोह-
रागद्वेषाभावात्पुनरागमनविरहितम्, नित्यमरणतद्भवमरणकारणकलेवरसंबन्धाभावान्नित्यम्,
निजगुणपर्यायप्रच्यवनाभावादचलम्, परद्रव्यावलम्बनाभावादनालम्बमिति
।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः —
१ – अध्यात्मशास्त्रोंमें अनेक स्थानों पर पाप तथा पुण्य दोनोंको ‘अघ’ अथवा ‘पाप’ कहा जाता है ।
२ – पुनरागमन = (चार गतियोंमेंसे किसी गतिमें) फि रसे आना; पुनः जन्म धारण करना सो ।
३ – नित्य मरण = प्रतिसमय होनेवाला आयुकर्मके निषेकोंका क्षय
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-