‘‘[श्लोकार्थ : — ] (श्रीगुरु संसारी भव्य जीवोंको सम्बोधते हैं कि : — ) हे अंध
प्राणियों ! अनादि संसारसे लेकर पर्याय - पर्यायमें यह रागी जीव सदैव मत्त वर्तते हुए जिस
पदमें सो रहे हैं — नींद ले रहे हैं वह पद अर्थात् स्थान अपद है — अपद है, (तुम्हारा स्थान
नहीं है,) ऐसा तुम समझो । (दो बार कहनेसे अत्यन्त करुणाभाव सूचित होता है ।) इस
ओर आओ — इस ओर आओ, (यहाँ निवास करो,) तुम्हारा पद यह है — यह है जहाँ शुद्ध -
शुद्ध चैतन्यधातु निज रसकी अतिशयताके कारण स्थायीभावपनेको प्राप्त है अर्थात् स्थिर
है — अविनाशी है । (यहाँ ‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है वह द्रव्य और भाव दोनोंकी शुद्धता
सूचित करता है । सर्व अन्यद्रव्योंसे पृथक् होनेके कारण आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है और परके
निमित्तसे होनेवाले अपने भावोंसे रहित होनेके कारण भावसे शुद्ध है ।)’’
और (इस १७८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : — )
[श्लोकार्थ : — ] भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव (परम-
पारिणामिकभाव) निरन्तर स्थायी है, संसारके नाशका कारण है और सम्यग्दृष्टियोंको गोचर
है । बुद्धिमान पुरुष समस्त रागद्वेषके समूहको छोड़कर तथा उस परम पंचम भावको
जानकर, अकेला, कलियुगमें पापवनकी अग्निरूप मुनिवरके रूपमें शोभा देता है (अर्थात्
जो बुद्धिमान पुरुष परम पारिणामिक भावका उग्ररूपसे आश्रय करता है, वही एक पुरुष
पापवनको जलानेमें अग्नि समान मुनिवर है ) ।२९७।
(मंदाक्रांता)
‘‘आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः
सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधाः ।
एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ।।’’
तथा हि —
(शार्दूलविक्रीडित)
भावाः पंच भवन्ति येषु सततं भावः परः पंचमः
स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्द्रशां गोचरः ।
तं मुक्त्वाखिलरागरोषनिकरं बुद्ध्वा पुनर्बुद्धिमान्
एको भाति कलौ युगे मुनिपतिः पापाटवीपावकः ।।२९७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३५७