गाथा : १७९ अन्वयार्थ : — [न अपि दुःखं ] जहाँ दुःख नहीं है, [न अपि
सौख्यं ] सुख नहीं है, [न अपि पीड़ा ] पीड़ा नहीं है, [न एव बाधा विद्यते ] बाधा नहीं
है, [न अपि मरणं ] मरण नहीं है, [न अपि जननं ] जन्म नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम्
भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् दुःखादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है ) ।
टीका : — यहाँ, (परमतत्त्वको) वास्तवमें सांसारिक विकारसमूहके अभावके
कारण १निर्वाण है ऐसा कहा है ।
२सतत अन्तर्मुखाकार परम - अध्यात्मस्वरूपमें लीन ऐसे उस ३निरुपराग –
रत्नत्रयात्मक परमात्माको अशुभ परिणतिके अभावके कारण अशुभ कर्म नहीं है और
अशुभ कर्मके अभावके कारण दुःख नहीं है; शुभ परिणतिके अभावके कारण शुभ
कर्म नहीं है और शुभ कर्मके अभावके कारण वास्तवमें संसारसुख नहीं है; पीड़ायोग्य
णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा णेव विज्जदे बाहा ।
णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१७९।।
नापि दुःखं नापि सौख्यं नापि पीडा नैव विद्यते बाधा ।
नापि मरणं नापि जननं तत्रैव च भवति निर्वाणम् ।।१७९।।
इह हि सांसारिकविकारनिकायाभावान्निर्वाणं भवतीत्युक्त म् ।
निरुपरागरत्नत्रयात्मकपरमात्मनः सततान्तर्मुखाकारपरमाध्यात्मस्वरूपनिरतस्य
तस्य वाऽशुभपरिणतेरभावान्न चाशुभकर्म अशुभकर्माभावान्न दुःखम्, शुभपरिणतेरभावान्न
शुभकर्म शुभकर्माभावान्न खलु संसारसुखम्, पीडायोग्ययातनाशरीराभावान्न पीडा,
१ – निर्वाण = मोक्ष; मुक्ति । [परमतत्त्व विकाररहित होनेसे द्रव्य-अपेक्षासे सदा मुक्त ही है । इसलिये
मुमुक्षुओंको ऐसा समझना चाहिये कि विकाररहित परमतत्त्वके सम्पूर्ण आश्रयसे ही (अर्थात् उसीके
श्रद्धान - ज्ञान - आचरणसे) वह परमतत्त्व अपनी स्वाभाविक मुक्तपर्यायमें परिणमित होता है । ]
२ – सतत अन्तर्मुखाकार = निरन्तर अन्तर्मुख जिसका आकार अर्थात् रूप है ऐसे ।
३ – निरुपराग = निर्विकार; निर्मल ।
दुख-सुख नहीं, पीड़ा जहाँ नहिं और बाधा है नहीं ।
नहिं जन्म है, नहिं मरण है, निर्वाण जानों रे वहीं ।।१७९।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-