परमात्मतत्त्वभेदभिन्नानि अथवा जीवाजीवास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाणां भेदात्सप्तधा भवन्ति ।
तेषां सम्यक्श्रद्धानं व्यवहारसम्यक्त्वमिति ।
(आर्या)
भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्ति रत्र न समस्ति ।
तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ।।१२।।
छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू ।
सेदं खेद मदो रइ विम्हियणिद्दा जणुव्वेगो ।।६।।
क्षुधा तृष्णा भयं रोषो रागो मोहश्चिन्ता जरा रुजा मृत्युः ।
स्वेदः खेदो मदो रतिः विस्मयनिद्रे जन्मोद्वेगौ ।।६।।
१२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
चतुर वचनरचना । तत्त्व बहिःतत्त्व और अन्तःतत्त्वरूप परमात्मतत्त्व ऐसे (दो) भेदोंवाले
हैं अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष ऐसे भेदोंके कारण सात
प्रकारके हैं । उनका ( – आप्तका, आगमका और तत्त्वका) सम्यक् श्रद्धान सो
व्यवहारसम्यक्त्व है ।
[अब, पाँचवीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहा जाता है :]
[श्लोेकार्थ : — ] भवके भयका भेदनकरनेवाले इन भगवानके प्रति क्या तुझे भक्ति
नहीं है ? तो तू भवसमुद्रके मध्यमें रहनेवाले मगरके मुखमें है ।१२।
गाथा : ६ अन्वयार्थ : — [क्षुधा ] क्षुधा, [तृष्णा ] तृषा, [भयं ] भय,
[रोषः ] रोष (क्रोध), [रागः ] राग, [मोहः ] मोह, [चिन्ता ] चिन्ता, [जरा ] जरा,
[रुजा ] रोग, [मृत्युः ] मृत्यु, [स्वेदः ] स्वेद (पसीना), [खेदः ] खेद, [मदः ] मद,
[रतिः ] रति, [विस्मयनिद्रे ] विस्मय, निद्रा, [जन्मोद्वेगौ ] जन्म और उद्वेग — (यह
अठारह दोष हैं ) ।
है दोष अष्टादश कहे रति, मोह, चिन्ता, मद, जरा ।
भय, दोष, राग, रु जन्म, निद्रा, रोग, खेद, क्षुधा, तृषा ।।६।।