अष्टादशदोषस्वरूपाख्यानमेतत् ।
असातावेदनीयतीव्रमंदक्लेशकरी क्षुधा । असातावेदनीयतीव्रतीव्रतरमंदमंदतरपीडया
समुपजाता तृषा । इहलोकपरलोकात्राणागुप्तिमरणवेदनाकस्मिकभेदात् सप्तधा भवति भयम् ।
क्रोधनस्य पुंसस्तीव्रपरिणामो रोषः । रागः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च; दानशीलोपवासगुरुजनवैयावृत्त्या-
दिसमुद्भवः प्रशस्तरागः, स्त्रीराजचौरभक्त विकथालापाकर्णनकौतूहलपरिणामो ह्यप्रशस्तरागः ।
चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त एव । चिन्तनं धर्मशुक्लरूपं
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[ १३
टीका : — यह, अठारह दोषोंके स्वरूपका कथन है ।
(१) असातावेदनीय सम्बन्धी तीव्र अथवा मंद क्लेशकी करनेवाली वह क्षुधा
है (अर्थात् विशिष्ट — खास प्रकारके — असातावेदनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाली जो
विशिष्ट शरीर-अवस्था उस पर लक्ष जाकर मोहनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाला जो
खानेकी इच्छारूप दुःख वह क्षुधा है) । (२) असातावेदनीय सम्बन्धी तीव्र, तीव्रतर
( – अधिक तीव्र), मन्द अथवा मन्दतर पीड़ासे उत्पन्न होनेवाली वह तृषा है (अर्थात्
विशिष्ट असातावेदनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाली जो विशिष्ट शरीर-अवस्था उस पर लक्ष
जाक र करनेसे मोहनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाला जो पीनेकी इच्छारूप दुःख वह तृषा
है) । (३) इस लोकका भय, परलोकका भय, अरक्षाभय, अगुप्तिभय, मरणभय,
वेदनाभय तथा अकस्मातभय इसप्रकार भय सात प्रकारके हैं । (४) क्रोधी पुरुषका
तीव्र परिणाम वह रोष है । (५) राग प्रशस्त और अप्रशस्त होता है; दान, शील, उपवास
तथा गुरुजनोंकी वैयावृत्त्य आदिमें उत्पन्न होनेवाला वह प्रशस्त राग है और स्त्री सम्बन्धी,
राजा सम्बन्धी, चोर सम्बन्धी तथा भोजन सम्बन्धी विकथा कहने तथा सुननेके
कौतूहलपरिणाम वह अप्रशस्त राग है । (६)१चार प्रकारके श्रमणसंघके प्रति वात्सल्य
सम्बन्धी मोह वह प्रशस्त है और उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त ही है । (७) धर्मरूप
तथा शुक्लरूप चिन्तन ( – चिन्ता, विचार) प्रशस्त है और उसके अतिरिक्त (आर्तरूप
तथा रौद्ररूप चिन्तन) अप्रशस्त ही है । (८) तिर्यंचों तथा मनुष्योंको वयकृत देहविकार
१ श्रमणके चार प्रकार इसप्रकार हैंः — (१) ऋषि, (२) मुनि, (३) यति और (४) अनगार । ऋद्धिवाले
श्रमण वे ऋषि हैं; अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अथवा केवलज्ञानवाले श्रमण वे मुनि हैं; उपशमक अथवा
क्षपक श्रेणीमें आरूढ़ श्रमण वे यति हैं; और सामान्य साधु वे अनगार हैं । — ऐसे चार प्रकारका श्रमणसंघ
है ।