( – आयुके कारण होनेवाली शरीरकी जीर्णदशा) वही जरा है । (९) वात, पित्त और
कफ की विषमतासे उत्पन्न होनेवाली कलेवर ( – शरीर) सम्बन्धी पीड़ा वही रोग है ।
(१०) सादि - सनिधन, मूर्त इन्द्रियोंवाले, विजातीय नरनारकादि विभावव्यंजनपर्यायका जो
विनाश उसीको मृत्यु कहा गया है । (११) अशुभ कर्मके विपाकसे जनित, शारीरिक
श्रमसे उत्पन्न होनेवाला, जो दुर्गंधके सम्बन्धके कारण बुरी गंधवाले जलबिन्दुओंका समूह
वह स्वेद है । (१२) अनिष्टकी प्राप्ति (अर्थात् कोई वस्तु अनिष्ट लगना) वह खेद है ।
(१३) सर्व जनताके ( – जनसमाजके) कानोंमें अमृत उँडेलनेवाले सहज चतुर कवित्वके
कारण, सहज (सुन्दर) शरीरके कारण, सहज (उत्तम) कुलके कारण, सहज बलके
कारण तथा सहज ऐश्वर्यके कारण आत्मामें जो अहङ्कारकी उत्पत्ति वह मद है ।
(१४) मनोज्ञ (मनोहर – सुन्दर) वस्तुओंमें परम प्रीति वही रति है । (१५) परम
समरसीभावकी भावना रहित जीवोंको (परम समताभावके अनुभव रहित जीवोंको) कभी
पूर्वकालमें न देखा हुआ देखनेके कारण होनेवाला भाव वह विस्मय है । (१६) केवल
शुभ कर्मसे देवपर्यायमें जो उत्पत्ति, केवल अशुभ कर्मसे नारकपर्यायमें जो
उत्पत्ति, मायासे तिर्यञ्चपर्यायमें जो उत्पत्ति और शुभाशुभ मिश्र कर्मसे मनुष्यपर्यायमें
जो उत्पत्ति, सो जन्म है । (१७) दर्शनावरणीय कर्मके उदयसे जिसमें ज्ञानज्योति अस्त
हो जाती है वही निद्रा है । (१८) इष्टके वियोगमें विक्लवभाव (घबराहट) ही
उद्वेग है । — इन (अठारह) महा दोषोंसे तीन लोक व्याप्त हैं । वीतराग सर्वज्ञ इन दोषोंसे
विमुक्त हैं ।
प्रशस्तमितरदप्रशस्तमेव । तिर्यङ्मानवानां वयःकृतदेहविकार एव जरा । वातपित्तश्लेष्मणां
वैषम्यसंजातकलेवरविपीडैव रुजा । सादिसनिधनमूर्तेन्द्रियविजातीयनरनारकादिविभावव्यंजन-
पर्यायविनाश एव मृत्युरित्युक्त : । अशुभकर्मविपाकजनितशरीरायाससमुपजातपूतिगंधसम्बन्ध-
वासनावासितवार्बिन्दुसंदोहः स्वेदः । अनिष्टलाभः खेदः । सहजचतुरकवित्वनिखिलजनता-
कर्णामृतस्यंदिसहजशरीरकुलबलैश्वर्यैरात्माहंकारजननो मदः । मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव
रतिः । परमसमरसीभावभावनापरित्यक्तानां क्वचिदपूर्वदर्शनाद्विस्मयः । केवलेन शुभकर्मणा,
केवलेनाशुभकर्मणा, मायया, शुभाशुभमिश्रेण देवनारकतिर्यङ्मनुष्यपर्यायेषूत्पत्तिर्जन्म ।
दर्शनावरणीयकर्मोदयेन प्रत्यस्तमितज्ञानज्योतिरेव निद्रा । इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः ।
एभिर्महादोषैर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः । एतैर्विनिर्मुक्तो वीतरागसर्वज्ञ इति ।
१४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-