[वीतराग सर्वज्ञको द्रव्य-भाव घातिकर्मोंका अभाव होनेसे उन्हें भय, रोष, राग, मोह, शुभाशुभ चिन्ता, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा तथा उद्वेग कहाँसे होंगे ?
और उनको समुद्र जितने सातावेदनीयकर्मोदयके मध्य बिन्दु जितना असातावेदनीयकर्मोदय वर्तता है वह, मोहनीयकर्मके बिलकुल अभावमें, लेशमात्र भी क्षुधा या तृषाका निमित्त कहाँसे होगा ? नहीं होगा; क्योंकि चाहे जितना असातावेदनीय कर्म हो तथापि मोहनीयकर्मके अभावमें दुःखकी वेदना नहीं हो सकती; तो फि र यहाँ तो जहाँ अनन्तगुने सातावेदनीयकर्मके मध्य अल्पमात्र ( – अविद्यमान जैसा) असातावेदनीयकर्म वर्तता है वहाँ क्षुधातृषाकी वेदना कहाँसे होगी ? क्षुधातृषाके सद्भावमें अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदि कहाँसे सम्भव होंगे ? इसप्रकार वीतराग सर्वज्ञको क्षुधा (तथा तृषा) न होनेसे उन्हें कवलाहार भी नहीं होता । कवलाहारके बिना भी उनके (अन्य मनुष्योंको असम्भवित ऐसे,) सुगन्धित, सुरसयुक्त, सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीररूप नोकर्माहारके योग्य, सूक्ष्म पुद्गल प्रतिक्षण आते हैं और इसलिये शरीरस्थिति रहती है ।
और पवित्रताका तथा पुण्यका ऐसा सम्बन्ध होता है अर्थात् घातिकर्मोंके अभावको और शेष रहे अघाति कर्मोंका ऐसा सहज सम्बन्ध होता है कि वीतराग सर्वज्ञको उन शेष रहे अघातिकर्मोंके फलरूप परमौदारिक शरीरमें जरा, रोग तथा स्वेद नहीं होते ।
और केवली भगवानको भवान्तरमें उत्पत्तिके निमित्तभूत शुभाशुभ भाव न होनेसे उन्हें जन्म नहीं होता; और जिस देहवियोगके पश्चात् भवान्तरप्राप्तिरूप जन्म नहीं होता उस देहवियोगको मरण नहीं कहा जाता ।
वह देव है जो अठारह दोष रहित है; इस सम्बन्धमें संशय नहीं है ।’’