निरवशेषेण प्रध्वंसनान्निःशेषदोषरहितः अथवा पूर्वसूत्रोपात्ताष्टादशमहादोषनिर्मूलनान्निः- शेषदोषनिर्मुक्त इत्युक्त : । सकलविमलकेवलबोधकेवलद्रष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दाद्यनेक- विभवसमृद्धः । यस्त्वेवंविधः त्रिकालनिरावरणनित्यानन्दैकस्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्न-
गाथा : ७ अन्वयार्थ : — [निःशेषदोषरहितः] (ऐसे) निःशेष दोषसे जो रहित है और [केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः ] केवलज्ञानादि परम वैभवसे जो संयुक्त है, [सः ] वह [परमात्मा उच्यते ] परमात्मा कहलाता है; [तद्विपरीतः ] उससे विपरीत [परमात्मा न ] वह परमात्मा नहीं है ।
आत्माके गुणोंका घात करनेवाले घातिकर्म — ज्ञानावरणीयकर्म, दर्शनावरणीयकर्म, अन्तरायकर्म तथा मोहनीयकर्म — हैं; उनका निरवशेषरूपसे प्रध्वंस कर देनेके कारण ( – कुछ भी शेष रखे बिना नाश कर देनेसे) जो ‘निःशेषदोषरहित’ हैं अथवा पूर्व सूत्रमें (छठवीं गाथामें) कहे हुए अठारह महादोषोंको निर्मूल कर दिया है इसलिये जिन्हें ‘निःशेषदोषरहित’ कहा गया है और जो ‘सकलविमल ( – सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान- केवलदर्शन, परमवीतरागात्मक आनन्द इत्यादि अनेक वैभवसे समृद्ध’ हैं, ऐसे जो