‘‘[श्लोेकार्थ : — ] जो कान्तिसे दशों दिशाओंको धोते हैं — निर्मल करते हैं, जो तेज
द्वारा अत्यन्त तेजस्वी सूर्यादिकके तेजको ढँक देते हैं, जो रूपसे जनोंके मन हर लेते हैं, जो
दिव्यध्वनि द्वारा (भव्योंके) कानोंमें मानों कि साक्षात् अमृत बरसाते हों ऐसा सुख उत्पन्न करते
हैं तथा जो एक हजार और आठ लक्षणोंको धारण करते हैं, वे तीर्थङ्करसूरि वंद्य हैं ।’’
और (सातवीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक द्वारा श्री नेमिनाथ तीर्थंकरकी स्तुति करते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] जिसप्रकार कमलके भीतर भ्रमर समा जाता है उसीप्रकार जिनके
ज्ञानकमलमें यह जगत तथा अजगत ( – लोक तथा अलोक) सदा स्पष्टरूपसे समा जाते
हैं — ज्ञात होते हैं, उन नेमिनाथ तीर्थंकरभगवानको मैं सचमुच पूजता हूँ कि जिससे ऊँ ची
तरंगोंवाले समुद्रको भी ( – दुस्तर संसारसमुद्रको भी) दो भुजाओंसे पार कर लूँ ।१४।
(शार्दूलविक्रीडित)
‘‘कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये
धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये ।
दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
जगदिदमजगच्च ज्ञाननीरेरुहान्त-
र्भ्रमरवदवभाति प्रस्फु टं यस्य नित्यम् ।
तमपि किल यजेऽहं नेमितीर्थंकरेशं
जलनिधिमपि दोर्भ्यामुत्तराम्यूर्ध्ववीचिम् ।।१४।।
तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं ।
आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ।।८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[ १९
परमात्मवाणी शुद्ध, पूर्वापर रहित विरोध है ।
आगम वही, देती वही तत्त्वार्थका उपदेश है ।।८।।