तस्य भगवतो रागाभावात् पापसूत्रवद्धिंसादिपापक्रियाभावाच्छुद्धः परमागम इति परिकथितः । तेन परमागमामृतेन भव्यैः श्रवणाञ्जलिपुटपेयेन मुक्ति सुन्दरीमुखदर्पणेन संसरणवारिनिधिमहा- वर्तनिमग्नसमस्तभव्यजनतादत्तहस्तावलम्बनेन सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना अक्षुण्ण- मोक्षप्रासादप्रथमसोपानेन स्मरभोगसमुद्भूताप्रशस्तरागाङ्गारैः पच्यमानसमस्तदीनजनतामहत्क्लेश-
गाथा : ८ अन्वयार्थ : — [तस्य मुखोद्गतवचनं ] उनके मुखसे निकली हुई वाणी जो कि [पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम् ] पूर्वापर दोष रहित ( – आगे पीछे विरोध रहित) और शुद्ध है, उसे [आगमम् इति परिकथितं ] आगम कहा है; [तेन तु ] और उसने [तत्त्वार्थाः ] तत्त्वार्थ [कथिताः भवन्ति ] कहे हैं ।
उन (पूर्वोक्त) परमेश्वरके मुखकमलसे निकली हुई चतुर वचनरचनाका विस्तार — जो कि ‘पूर्वापर दोष रहित’ है और उन भगवानको रागका अभाव होनेसे पापसूत्रकी भाँति हिंसादि पापक्रियाशून्य होनेसे ‘शुद्ध’ है वह — परमागम कहा गया है । उस परमागमने — कि जो (परमागम) भव्योंको कर्णरूपी अञ्जलिपुटसे पीनेयोग्य अमृत है, जो मुक्तिसुन्दरीके मुखका दर्पण है (अर्थात् जो परमागम मुक्तिका स्वरूप दरशाता है ), जो संसारसमुद्रके महा भँवरमें निमग्न समस्त भव्यजनोंको हस्तावलम्बन (हाथका सहारा) देता है, जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका ❃शिखामणि है, जो कभी न देखे हुए ( – अनजाने, अननुभूत, जिस पर स्वयं पहले कभी नहीं गया है ऐसे) मोक्ष-महलकी प्रथम सीढ़ी है और जो कामभोगसे उत्पन्न होनेवाले अप्रशस्त ❃
है ।)