द्युतिपटलजटालं तद्धि षड्द्रव्यजातम् ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६।।
स्थितिका ( – स्वभावस्थितिका तथा विभावस्थितिका) निमित्त सो अधर्म है ।
(शेष) पाँच द्रव्योंको अवकाशदान ( – अवकाश देना) जिसका लक्षण है वह आकाश है ।
ही) हैं ।
[अब, नवमी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा छह द्रव्यकी श्रद्धाके फलका वर्णन करते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार उस षट्द्रव्यसमूहरूपी रत्नको — जो कि (रत्न) तेजके अम्बारके कारण किरणोंवाला है और जो जिनपतिके मार्गरूपी समुद्रके मध्यमें स्थित है उसे — जो तीक्ष्ण बुद्धिवाला पुरुष हृदयमें भूषणार्थ (शोभाके लिये) धारण करता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् जो पुरुष अन्तरंगमें छह द्रव्यकी यथार्थ श्रद्धा करता है, वह मुक्तिलक्ष्मीका वरण करता है ) ।१६ ।