लक्षणमाकाशम् । पंचानां वर्तनाहेतुः कालः । चतुर्णाममूर्तानां शुद्धगुणाः, पर्यायाश्चैतेषां
तथाविधाश्च ।
(मालिनी)
इति जिनपतिमार्गाम्भोधिमध्यस्थरत्नं
द्युतिपटलजटालं तद्धि षड्द्रव्यजातम् ।
हृदि सुनिशितबुद्धिर्भूषणार्थं विधत्ते
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६।।
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ ।
णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ।।१०।।
२४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
स्थितिका ( – स्वभावस्थितिका तथा विभावस्थितिका) निमित्त सो अधर्म है ।
(शेष) पाँच द्रव्योंको अवकाशदान ( – अवकाश देना) जिसका लक्षण है वह
आकाश है ।
(शेष) पाँच द्रव्योंको वर्तनाका निमित्त वह काल है ।
(जीवके अतिरिक्त) चार अमूर्त द्रव्योंके शुद्ध गुण हैं; उनकी पर्यायें भी वैसी (शुद्ध
ही) हैं ।
[अब, नवमी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा छह
द्रव्यकी श्रद्धाके फलका वर्णन करते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार उस षट्द्रव्यसमूहरूपी रत्नको — जो कि (रत्न)
तेजके अम्बारके कारण किरणोंवाला है और जो जिनपतिके मार्गरूपी समुद्रके मध्यमें स्थित
है उसे — जो तीक्ष्ण बुद्धिवाला पुरुष हृदयमें भूषणार्थ (शोभाके लिये) धारण करता है,
वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् जो पुरुष अन्तरंगमें छह द्रव्यकी
यथार्थ श्रद्धा करता है, वह मुक्तिलक्ष्मीका वरण करता है ) ।१६ ।
उपयोगमय है जीव, वह उपयोग दर्शन-ज्ञान है ।
ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभाव द्विविध विधान है ।।१०।।