सम्बन्धः प्रदीपप्रकाशवत् । ज्ञानदर्शनविकल्पेनासौ द्विविधः । अत्र ज्ञानोपयोगोऽपि स्वभाव- विभावभेदाद् द्विविधो भवति । इह हि स्वभावज्ञानम् अमूर्तम् अव्याबाधम् अतीन्द्रियम् अविनश्वरम् । तच्च कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति । कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् । केवलं विभाव- रूपाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमतिकुश्रुतविभङ्गभाञ्जि भवन्ति । एतेषाम् उपयोगभेदानां ज्ञानानां भेदो वक्ष्यमाणसूत्रयोर्द्वयोर्बोद्धव्य इति ।
गाथा : १० अन्वयार्थ : — [जीवः ] जीव [उपयोगमयः ] उपयोगमय है । [उपयोगः ] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भवति ] ज्ञान और दर्शन है । [ज्ञानोपयोगः द्विविधः ] ज्ञानोपयोग दो प्रकारका है : [स्वभावज्ञानं ] स्वभावज्ञान और [विभावज्ञानम् इति ] विभावज्ञान ।
आत्माका चैतन्य-अनुवर्ती (चैतन्यका अनुसरण करके वर्तनेवाला) परिणाम सो उपयोग है । उपयोग धर्म है, जीव धर्मी है । दीपक और प्रकाश जैसा उनका सम्बन्ध है । ज्ञान और दर्शनके भेदसे यह उपयोग दो प्रकारका है (अर्थात् उपयोगके दो प्रकार हैं : ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग) । इनमें ज्ञानोपयोग भी स्वभाव और विभावके भेदके कारण दो प्रकारका है (अर्थात् ज्ञानोपयोगके भी दो प्रकार हैं : स्वभावज्ञानोपयोग और विभावज्ञानोपयोग) । उनमें स्वभावज्ञान अमूर्त, अव्याबाध, अतीन्द्रिय और अविनाशी है; वह भी कार्य और कारणरूपसे दो प्रकारका है (अर्थात् स्वभावज्ञानके भी दो प्रकार हैं : कार्यस्वभावज्ञान और कारणस्वभावज्ञान) । कार्य तो सकलविमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान है और उसका कारण परम पारिणामिकभावसे स्थित त्रिकालनिरुपाधिक सहजज्ञान है । केवल विभावरूप ज्ञान तीन हैं : कुमति, कुश्रुत और विभङ्ग ।
इस उपयोगके भेदरूप ज्ञानके भेद, अब कहे जानेवाले दो सूत्रों द्वारा (११ और १२वीं गाथा द्वारा) जानना ।