अप्रतिवस्तुव्यापकत्वात् असहायम्, तत्कार्यस्वभावज्ञानं भवति । कारणज्ञानमपि ताद्रशं
गाथा : ११-१२ अन्वयार्थ : — [केवलम् ] जो (ज्ञान) केवल, [इन्द्रियरहितम् ] इन्द्रियरहित और [असहायं ] असहाय है, [तत् ] वह [स्वभावज्ञानम् इति ] स्वभावज्ञान है; [संज्ञानेतरविकल्पे ] सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानरूप भेद किये जाने पर, [विभावज्ञानं ] विभावज्ञान [द्विविधं भवेत् ] दो प्रकारका है ।
[संज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान [चतुर्भेदं ] चार भेदवाला है : [मतिश्रुतावधयः तथा एव मनःपर्ययम् ] मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यय; [अज्ञानं च एव ] और अज्ञान ( – मिथ्याज्ञान) [मत्यादेः भेदतः ] मति आदिके भेदसे [त्रिविकल्पम् ] तीन भेदवाला है ।
जो उपाधि रहित स्वरूपवाला होनेसे १केवल है, आवरण रहित स्वरूपवाला होनेसे क्रम, इन्द्रिय और (देश – कालादि) २व्यवधान रहित है, एक – एक वस्तुमें व्याप्त नहीं होता १ केवल = अकेला; शुद्ध; मिलावट रहित ( – निर्भेल) । २ व्यवधान = आड़; परदा; अन्तर; आँतर-दूरी; विघ्न ।