इदानीं शुद्धाशुद्धज्ञानस्वरूपभेदस्त्वयमुच्यते । अनेकविकल्पसनाथं मतिज्ञानम् उप- लब्धिभावनोपयोगाच्च अवग्रहादिभेदाच्च बहुबहुविधादिभेदाद्वा । लब्धिभावनाभेदाच्छ्रुतज्ञानं द्विविधम् । देशसर्वपरमभेदादवधिज्ञानं त्रिविधम् । ऋजुविपुलमतिविकल्पान्मनःपर्ययज्ञानं च द्विविधम् । परमभावस्थितस्य सम्यग्द्रष्टेरेतत्संज्ञानचतुष्कं भवति । मतिश्रुतावधिज्ञानानि मिथ्याद्रष्टिं परिप्राप्य कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानानीति नामान्तराणि प्रपेदिरे । ( – समस्त वस्तुओंमें व्याप्त होता है ) इसलिये असहाय है, वह कार्यस्वभावज्ञान है । कारणज्ञान भी वैसा ही है । काहेसे ? निज परमात्मामें विद्यमान सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहजसुख और सहजपरमचित्शक्तिरूप निज कारणसमयसारके स्वरूपोंको युगपद् जाननेमें समर्थ होनेसे वैसा ही है । इस प्रकार शुद्ध ज्ञानका स्वरूप कहा ।
अब यह (निम्नानुसार), शुद्धाशुद्ध ज्ञानका स्वरूप और भेद कहे जाते हैं : १उपलब्धि, भावना और उपयोगसे तथा २अवग्रहादि भेदसे अथवा ३बहु, बहुविध आदि भेदसे मतिज्ञान अनेक भेदवाला है । लब्धि और भावनाके भेदसे श्रुतज्ञान दो प्रकारका है । देश, सर्व और परमके भेदसे (अर्थात् देशावधि, सर्वावधि तथा परमावधि ऐसे तीन भेदोंके कारण) अवधिज्ञान तीन प्रकारका है । ऋजुमति और विपुलमतिके भेदके कारण १मतिज्ञान तीन प्रकारका है : उपलब्धि, भावना और उपयोग । मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम जिसमें निमित्त
पुनः चिंतन सो भावना है; ‘यह काला है,’ ‘यह पीला है’ इत्यादिरूप अर्थग्रहणव्यापार ( – पदार्थको जाननेका व्यापार) सो उपयोग है । २मतिज्ञान चार भेदवाला है : अवग्रह, ईहा ( – विचारणा), अवाय ( – निर्णय) और धारणा । [विशेषके
लिये मोक्षशास्त्र (सटीक) देखें ।] ३मतिज्ञान बारह भेदवाला है : बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिःसृत, निःसृत, अनुक्त, उक्त, ध्रुव तथा अध्रुव । [विशेषके लिये मोक्षशास्त्र (सटीक) देखें ।]