अत्र सहजज्ञानं शुद्धान्तस्तत्त्वपरमतत्त्वव्यापकत्वात् स्वरूपप्रत्यक्षम् । केवलज्ञानं
सकलप्रत्यक्षम् । ‘रूपिष्ववधेः’ इति वचनादवधिज्ञानं विकलप्रत्यक्षम् । तदनन्तभागवस्त्वंश-
ग्राहकत्वान्मनःपर्ययज्ञानं च विकलप्रत्यक्षम् । मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षं
व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति ।
किं च उक्ते षु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्त्वनिष्ठसहजज्ञानमेव । अपि च
पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न समस्ति ।
अनेन सहजचिद्विलासरूपेण सदा सहजपरमवीतरागशर्मामृतेन अप्रतिहतनिरा-
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[ २९
मनःपर्ययज्ञान दो प्रकारका है । परमभावमें स्थित सम्यग्दृष्टिको १यह चार सम्यग्ज्ञान होते हैं ।
मिथ्यादर्शन हो वहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ‘कुमतिज्ञान,’ ‘कुश्रुतज्ञान’ तथा
‘विभंगज्ञान’ — ऐसे नामांतरोंको (अन्य नामोंको) प्राप्त होते हैं ।
यहाँ (ऊ पर कहे हुए ज्ञानोंमें) सहजज्ञान, शुद्ध अन्तःतत्त्वरूप परमतत्त्वमें व्यापक
होनेसे, २स्वरूपप्रत्यक्ष है । केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष (सम्पूर्णप्रत्यक्ष) है । ‘रूपिष्ववधेः
(अवधिज्ञानका विषय – सम्बन्ध रूपी द्रव्योंमें है )’ ऐसा (आगमका) वचन होनेसे
अवधिज्ञान विकलप्रत्यक्ष (एकदेशप्रत्यक्ष) है । उसके अनन्तवें भागमें वस्तुके अंशका
ग्राहक ( – ज्ञाता) होनेसे मनःपर्ययज्ञान भी विकलप्रत्यक्ष है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों
परमार्थसे परोक्ष हैं और व्यवहारसे प्रत्यक्ष हैं ।
और विशेष यह है कि — उक्त (ऊ पर कहे हुए) ज्ञानोंमें साक्षात् मोक्षका मूल
निजपरमतत्त्वमें स्थित ऐसा एक सहजज्ञान ही है; तथा सहजज्ञान (उसके)
पारिणामिकभावरूप स्वभावके कारण भव्यका परमस्वभाव होनेसे, सहजज्ञानके अतिरिक्त
अन्य कुछ उपादेय नहीं है ।
इस सहजचिद्विलासरूप (१) सदा सहज परम वीतराग सुखामृत,
(२) अप्रतिहत निरावरण परम चित्शक्तिका रूप, (३) सदा अन्तर्मुख ऐसा
स्वस्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहज परम चारित्र, और (४) त्रिकाल अविच्छिन्न
(अटूट) होनेसे सदा निकट ऐसी परम चैतन्यरूपकी श्रद्धा — इस स्वभाव-
१सुमतिज्ञान और सुश्रुतज्ञान सर्व सम्यग्दृष्टि जीवोंको होते हैं । सुअवधिज्ञान किन्हीं-किन्हीं सम्यग्दृष्टि
जीवोंको होता है । मनःपर्ययज्ञान किन्हीं-किन्हीं मुनिवरोंको — विशिष्टसंयमधरोंको — होता है ।
२स्वरूपप्रत्यक्ष = स्वरूपसे प्रत्यक्ष; स्वरूप-अपेक्षासे प्रत्यक्ष; स्वभावसे प्रत्यक्ष ।