व्युच्छिन्नतया सदा सन्निहितपरमचिद्रूपश्रद्धानेन अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम्
अनाथमुक्ति सुन्दरीनाथम् आत्मानं भावयेत् ।
परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम् ।
तत उपरि समग्रं शाश्वतं शं प्रयाति ।।१८।।
अनन्तचतुष्टयसे जो सनाथ (सहित) है ऐसे आत्माको — अनाथ मुक्तिसुन्दरीके नाथको — भाना चाहिये (अर्थात् सहजज्ञानविलासरूपसे स्वभाव-अनन्तचतुष्टययुक्त आत्माको भाना चाहिये — अनुभवन करना चाहिये) ।
इसप्रकार संसाररूपी लताका मूल छेदनेके लिये हँसियारूप इस १उपन्याससे ब्रह्मोपदेश किया ।
[अब, इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार कहे गये भेदोंके ज्ञानको पाकर भव्य जीव घोर संसारके मूलरूप समस्त २सुकृत या दुष्कृतको, सुख या दुःखको अत्यन्त परिहरो । उससे ऊ पर (अर्थात् उसे पार कर लेने पर), जीव समग्र (परिपूर्ण) शाश्वत सुखको प्राप्त करता है ।१८।
[श्लोेकार्थ : — ] परिग्रहका ग्रहण छोड़कर तथा शरीरके प्रति उपेक्षा करके बुध पुरुषको अव्यग्रतासे (निराकुलतासे) भरा हुआ चैतन्य मात्र जिसका शरीर है उसे ( – आत्माको) भाना चाहिये ।१९। १-उपन्यास = कथन; सूचन; लेख; प्रारम्भिक कथन; प्रस्तावना । २-सुकृत या दुष्कृत = शुभ या अशुभ ।