Niyamsar (Hindi).

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वरणपरमचिच्छक्ति रूपेण सदान्तर्मुखे स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रेण त्रिकालेष्व-
व्युच्छिन्नतया सदा सन्निहितपरमचिद्रूपश्रद्धानेन अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम्
अनाथमुक्ति सुन्दरीनाथम् आत्मानं भावयेत
इत्यनेनोपन्यासेन संसारव्रततिमूललवित्रेण ब्रह्मोपदेशः कृत इति
(मालिनी)
इति निगदितभेदज्ञानमासाद्य भव्यः
परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम्
सुकृतमसुकृतं वा दुःखमुच्चैः सुखं वा
तत उपरि समग्रं शाश्वतं शं प्रयाति
।।१८।।
(अनुष्टुभ्)
परिग्रहाग्रहं मुक्त्वा कृत्वोपेक्षां च विग्रहे
निर्व्यग्रप्रायचिन्मात्रविग्रहं भावयेद् बुधः ।।9।।
३० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अनन्तचतुष्टयसे जो सनाथ (सहित) है ऐसे आत्माकोअनाथ मुक्तिसुन्दरीके
नाथकोभाना चाहिये (अर्थात् सहजज्ञानविलासरूपसे स्वभाव-अनन्तचतुष्टययुक्त
आत्माको भाना चाहियेअनुभवन करना चाहिये)
इसप्रकार संसाररूपी लताका मूल छेदनेके लिये हँसियारूप इस उपन्याससे
ब्रह्मोपदेश किया
[अब, इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक
कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] इसप्रकार कहे गये भेदोंके ज्ञानको पाकर भव्य जीव घोर संसारके
मूलरूप समस्त सुकृत या दुष्कृतको, सुख या दुःखको अत्यन्त परिहरो उससे ऊ पर
(अर्थात् उसे पार कर लेने पर), जीव समग्र (परिपूर्ण) शाश्वत सुखको प्राप्त करता है १८
[श्लोेकार्थ :] परिग्रहका ग्रहण छोड़कर तथा शरीरके प्रति उपेक्षा करके बुध
पुरुषको अव्यग्रतासे (निराकुलतासे) भरा हुआ चैतन्य मात्र जिसका शरीर है उसे
(
आत्माको) भाना चाहिये १९
१-उपन्यास = कथन; सूचन; लेख; प्रारम्भिक कथन; प्रस्तावना २-सुकृत या दुष्कृत = शुभ या अशुभ