Niyamsar (Hindi). Gatha: 13.

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तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।।१३।।
तथा दर्शनोपयोगः स्वस्वभावेतरविकल्पतो द्विविधः
केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत् स्वभाव इति भणितः ।।१३।।
दर्शनोपयोगस्वरूपाख्यानमेतत
यथा ज्ञानोपयोगो बहुविधविकल्पसनाथः दर्शनोपयोगश्च तथा स्वभावदर्शनोपयोगो
विभावदर्शनोपयोगश्च स्वभावोऽपि द्विविधः, कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति तत्र कारण-
द्रष्टिः सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य सहजपरमपारि-
णामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य निरावरणस्वभावस्य स्वस्वभावसत्तामात्रस्य
३२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
गाथा : १३ अन्वयार्थ :[तथा ] उसीप्रकार [दर्शनोपयोगः ] दर्शनोपयोग
[स्वस्वभावेतरविकल्पतः ] स्वभाव और विभावके भेदसे [द्विविधः ] दो प्रकारका है
[केवलम् ] जो केवल, [इन्द्रियरहितम् ] इन्द्रियरहित और [असहायं ] असहाय है,
[तत् ] वह [स्वभावः इति भणितः ] स्वभावदर्शनोपयोग कहा है
टीका :यह, दर्शनोपयोगके स्वरूपका कथन है
जिसप्रकार ज्ञानोपयोग बहुविध भेदोंवाला है, उसीप्रकार दर्शनोपयोग भी वैसा है
(वहाँ प्रथम, उसके दो भेद हैं :) स्वभावदर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग
स्वभावदर्शनोपयोग भी दो प्रकारका है : कारणस्वभावदर्शनोपयोग और कार्यस्वभाव -
दर्शनोपयोग
वहाँ कारणदृष्टि तो, सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभावस्वभाव
परभावोंको अगोचर ऐसा सहज - परमपारिणामिकभावरूप जिसका स्वभाव है, जो
दृष्टि = दर्शन [दर्शन अथवा दृष्टिके दो अर्थ हैं : (१) सामान्य प्रतिभास, और (२) श्रद्धा जहाँ
जो अर्थ घटित होता हो वहाँ वह अर्थ समझना दोनों अर्थ गर्भित हों वहाँ दोनों समझना ]
विभाव = विशेष भाव; अपेक्षित भाव [औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक यह
चार भाव अपेक्षित भाव होनेसे उन्हें विभावस्वभाव परभाव कहा है एक सहजपरमपारिणामिक भावको
दर्शनपयोग स्वभाव और विभाव दो विधि जानिये
इन्द्रिय - रहित, असहाय, केवल दृग्स्वभाविक मानिये ।।१३।।