चतुरिन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकासंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा-
च्चतुर्दशभेदा भवन्ति । भावनव्यंतरज्योतिःकल्पवासिकभेदाद्देवाश्चतुर्णिकायाः । एतेषां चतुर्गति-
और एक पल्योपम, दो पल्योपम अथवा तीन पल्योपमकी आयुवाले हैं ।
रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नामकी सात पृथ्वीके भेदोंके कारण नारक जीव सात प्रकारके हैं । पहले नरकके नारकी एक सागरोपमकी आयुवाले हैं, दूसरे नरकके नारकी तीन सागरोपमकी आयुवाले हैं । तीसरे नरकके नारकी सात सागरोपमकी आयुवाले हैं, चौथे नरकके नारकी दस सागरोपम, पाँचवें नरकके सत्रह सागरोपम, छठवें नरकके बाईस सागरोपम और सातवें नरकके नारकी तेतीस सागरोपमकी आयुवाले हैं ।
(३-४) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (५-६) द्वीन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (७-८) त्रीन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (९-१०) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (११-१२) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (१३-१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त ।
देवोंके चार निकाय (समूह) हैं : (१) भवनवासी, (२) व्यंतर, (३) ज्योतिष्क और (४) कल्पवासी ।
इन चार गतिके जीवोंके भेदोंके भेद लोकविभाग नामक परमागममें देख लें । यहाँ (इस परमागममें) आत्मस्वरूपके निरूपणमें अन्तरायका हेतु होगा इसलिये सूत्रकर्ता पूर्वाचार्यमहाराजने (वे विशेष भेद) नहीं कहे हैं ।