Niyamsar (Hindi). Gatha: 18.

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पूर्वसूरिभिः सूत्रकृद्भिरनुक्त इति
(मन्दाक्रांता)
स्वर्गे वाऽस्मिन्मनुजभुवने खेचरेन्द्रस्य दैवा-
ज्ज्योतिर्लोके फणपतिपुरे नारकाणां निवासे
अन्यस्मिन् वा जिनपतिभवने कर्मणां नोऽस्तु सूतिः
भूयो भूयो भवतु भवतः पादपङ्केजभक्ति :
।।२८।।
(शार्दूलविक्रीडित)
नानानूननराधिनाथविभवानाकर्ण्य चालोक्य च
त्वं क्लिश्नासि मुधात्र किं जडमते पुण्यार्जितास्ते ननु
तच्छक्ति र्जिननाथपादकमलद्वन्द्वार्चनायामियं
भक्ति स्ते यदि विद्यते बहुविधा भोगाः स्युरेते त्वयि
।।9।।
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा
कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ।।१८।।
४२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
[अब इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] (हे जिनेन्द्र !) दैवयोगसे मैं स्वर्गमें होऊँ , इस मनुष्यलोकमें होऊँ,
विद्याधरके स्थानमें होऊँ , ज्योतिष्क देवोंके लोकमें होऊँ , नागेन्द्रके नगरमें होऊँ , नारकोंके
निवासमें होऊँ , जिनपतिके भवनमें होऊँ या अन्य चाहे जिस स्थान पर होऊँ, (परन्तु) मुझे
कर्मका उद्भव न हो, पुनः पुनः आपके पादपंकजकी भक्ति हो
२८
[श्लोेकार्थ :] नराधिपतियोंके अनेकविध महा वैभवोंको सुनकर तथा देखकर,
हे जड़मति, तू यहाँ व्यर्थ ही क्लेश क्यों प्राप्त करता है ! वे वैभव सचमुच पुण्यसे प्राप्त
होते हैं
वह (पुण्योपार्जनकी) शक्ति जिननाथके पादपद्मयुगलकी पूजामें है; यदि तुझे उन
जिनपादपद्मोंकी भक्ति हो, तो वे बहुविध भोग तुझे (अपने आप) होंगे २९
है जीव कर्ताभोगता जड़कर्मका व्यवहारसे
है कर्मजन्य विभावका कर्ता नियत नय द्वारसे ।।१८।।