ज्ज्योतिर्लोके फणपतिपुरे नारकाणां निवासे ।
भूयो भूयो भवतु भवतः पादपङ्केजभक्ति : ।।२८।।
त्वं क्लिश्नासि मुधात्र किं जडमते पुण्यार्जितास्ते ननु ।
भक्ति स्ते यदि विद्यते बहुविधा भोगाः स्युरेते त्वयि ।।२9।।
[अब इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] (हे जिनेन्द्र !) दैवयोगसे मैं स्वर्गमें होऊँ , इस मनुष्यलोकमें होऊँ, विद्याधरके स्थानमें होऊँ , ज्योतिष्क देवोंके लोकमें होऊँ , नागेन्द्रके नगरमें होऊँ , नारकोंके निवासमें होऊँ , जिनपतिके भवनमें होऊँ या अन्य चाहे जिस स्थान पर होऊँ, (परन्तु) मुझे कर्मका उद्भव न हो, पुनः पुनः आपके पादपंकजकी भक्ति हो ।२८।
[श्लोेकार्थ : — ] नराधिपतियोंके अनेकविध महा वैभवोंको सुनकर तथा देखकर, हे जड़मति, तू यहाँ व्यर्थ ही क्लेश क्यों प्राप्त करता है ! वे वैभव सचमुच पुण्यसे प्राप्त होते हैं । वह (पुण्योपार्जनकी) शक्ति जिननाथके पादपद्मयुगलकी पूजामें है; यदि तुझे उन जिनपादपद्मोंकी भक्ति हो, तो वे बहुविध भोग तुझे (अपने आप) होंगे ।२९।