भोक्ता च, आत्मा हि अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च, अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता । इत्यशुद्धजीवस्वरूपमुक्त म् ।
परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात् ।
गाथा : १८ अन्वयार्थ : — [आत्मा ] आत्मा [पुद्गलकर्मणः ] पुद्गल- कर्मका [कर्ता भोक्ता ] कर्ता - भोक्ता [व्यवहारात् ] व्यवहारसे [भवति ] है [तु ] और [आत्मा ] आत्मा [कर्मजभावेन ] कर्मजनित भावका [कर्ता भोक्ता ] कर्ता - भोक्ता [निश्चयतः ] (अशुद्ध) निश्चयसे है ।
आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मका कर्ता और उसके फलरूप सुखदुःखका भोक्ता है, अशुद्ध निश्चयनयसे समस्त मोहरागद्वेषादि भावकर्मका कर्ता और भोक्ता है, अनुपचरित असद्भूत व्यवहारसे (देहादि) नोकर्मका कर्ता है, उपचरित असद्भूत व्यवहारसे घट - पट - शकटादिका (घड़ा, वस्त्र, बैलगाड़ी इत्यादिका) कर्ता है । इसप्रकार अशुद्ध जीवका स्वरूप कहा ।
[अब १८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] सकल मोहरागद्वेषवाला जो कोई पुरुष परम गुरुके चरणकमलयुगलकी सेवाके प्रसादसे निर्विकल्प सहज समयसारको जानता है, वह पुरुष