सहजसमयसारं निर्विकल्पं हि बुद्ध्वा
स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः ।।३०।।
(अनुष्टुभ्)
भावकर्मनिरोधेन द्रव्यकर्मनिरोधनम् ।
द्रव्यकर्मनिरोधेन संसारस्य निरोधनम् ।।३१।।
(वसन्ततिलका)
संज्ञानभावपरिमुक्त विमुग्धजीवः
कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म ।
निर्मुक्ति मार्गमणुमप्यभिवाञ्छितुं नो
जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके ।।३२।।
(वसन्ततिलका)
यः कर्मशर्मनिकरं परिहृत्य सर्वं
निष्कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे ।
मज्जन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं
स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः ।।३३।।
४४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
परमश्रीरूपी सुन्दरीका प्रिय कान्त होता है ।३०।
[श्लोेकार्थ : — ] भावकर्मके निरोधसे द्रव्यकर्मका निरोध होता है; द्रव्यकर्मके
निरोधसे संसारका निरोध होता है ।३१।
[श्लोेकार्थ : — ] जो जीव सम्यग्ज्ञानभावरहित विमुग्ध (मोही, भ्रान्त) है, वह
जीव शुभाशुभ अनेकविध कर्मको करता हुआ मोक्षमार्गको लेशमात्र भी वांछना नहीं
जानता; उसे लोकमें (कोई) शरण नहीं है ।३२।
[श्लोेकार्थ : — ] जो समस्त कर्मजनित सुखसमूहको परिहरण करता है, वह
भव्य पुरुष निष्कर्म सुखसमूहरूपी अमृतके सरोवरमें मग्न होते हुए ऐसे इस अतिशय-
चैतन्यमय, एकरूप, अद्वितीय निज भावको प्राप्त क रता है ।३३।