इह हि नयद्वयस्य सफलत्वमुक्त म् ।
द्वौ हि नयौ भगवदर्हत्परमेश्वरेण प्रोक्तौ, द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । द्रव्यमेवार्थः
प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः । पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । न खलु एकनया-
यत्तोपदेशो ग्राह्यः, किन्तु तदुभयनयायत्तोपदेशः । सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्त -
व्यञ्जनपर्यायेभ्यः सकाशान्मुक्तामुक्त समस्तजीवराशयः सर्वथा व्यतिरिक्ता एव । कुतः ? ‘‘सव्वे
सुद्धा हु सुद्धणया’’ इति वचनात् । विभावव्यंजनपर्यायार्थिकनयबलेन ते सर्वे जीवास्संयुक्ता
भवन्ति । किंच सिद्धानामर्थपर्यायैः सह परिणतिः, न पुनर्व्यंजनपर्यायैः सह परिणतिरिति ।
कुतः ? सदा निरंजनत्वात् । सिद्धानां सदा निरंजनत्वे सति तर्हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्याम्
४६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
[पूर्वभणितपर्यायात् ] पूर्वकथित पर्यायसे [व्यतिरिक्ताः] ❃व्यतिरिक्त है; [पर्यायनयेन]
पर्यायनयसे [जीवाः ] जीव [संयुक्ताः भवन्ति ] उस पर्यायसे संयुक्त हैं । [द्वाभ्याम् ]
इसप्रकार जीव दोनों नयोंसे संयुक्त हैं ।
टीका : — यहाँ दोनों नयोंका सफलपना कहा है ।
भगवान अर्हत् परमेश्वरने दो नय कहे हैं : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्य ही
जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक है और पर्याय ही जिसका अर्थ अर्थात्
प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक है । एक नयका अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करनेयोग्य
नहीं है किन्तु उन दोनों नयोंका अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करनेयोग्य है ।
सत्ताग्राहक ( – द्रव्यकी सत्ताको ही ग्रहण करनेवाले) शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके बलसे पूर्वोक्त
व्यंजनपर्यायोंसे मुक्त तथा अमुक्त ( – सिद्ध तथा संसारी) समस्त जीवराशि सर्वथा व्यतिरिक्त
ही है । क्यों ? ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया (शुद्धनयसे सर्व जीव वास्तवमें शुद्ध हैं )’’ ऐसा
(शास्त्रका) वचन होनेसे । विभावव्यंजनपर्यायार्थिक नयके बलसे वे सर्व जीव (पूर्वोक्त
व्यंजनपर्यायोंसे) संयुक्त हैं । विशेष इतना कि — सिद्ध जीवोंके अर्थपर्यायों सहित परिणति
है, परन्तु व्यंजनपर्यायों सहित परिणति नहीं है । क्यों ? सिद्ध जीव सदा निरंजन होनेसे ।
(प्रश्न : — ) यदि सिद्ध जीव सदा निरंजन हैं तो सर्व जीव द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक
दोनों नयोंसे संयुक्त हैं (अर्थात् सर्व जीवोंको दोनों नय लागू होते हैं ) ऐसा सूत्रार्थ (गाथाका
अर्थ) व्यर्थ सिद्ध होता है । (उत्तर : — व्यर्थ सिद्ध नहीं होता क्योंकि — ) निगम अर्थात्
❃
व्यतिरिक्त = भिन्न; रहित; शून्य ।