Niyamsar (Hindi).

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इह हि नयद्वयस्य सफलत्वमुक्त म्
द्वौ हि नयौ भगवदर्हत्परमेश्वरेण प्रोक्तौ, द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति द्रव्यमेवार्थः

प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः न खलु एकनया- यत्तोपदेशो ग्राह्यः, किन्तु तदुभयनयायत्तोपदेशः सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्त - व्यञ्जनपर्यायेभ्यः सकाशान्मुक्तामुक्त समस्तजीवराशयः सर्वथा व्यतिरिक्ता एव कुतः ? ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ इति वचनात विभावव्यंजनपर्यायार्थिकनयबलेन ते सर्वे जीवास्संयुक्ता भवन्ति किंच सिद्धानामर्थपर्यायैः सह परिणतिः, न पुनर्व्यंजनपर्यायैः सह परिणतिरिति कुतः ? सदा निरंजनत्वात सिद्धानां सदा निरंजनत्वे सति तर्हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्याम् [पूर्वभणितपर्यायात् ] पूर्वकथित पर्यायसे [व्यतिरिक्ताः] व्यतिरिक्त है; [पर्यायनयेन] पर्यायनयसे [जीवाः ] जीव [संयुक्ताः भवन्ति ] उस पर्यायसे संयुक्त हैं [द्वाभ्याम् ] इसप्रकार जीव दोनों नयोंसे संयुक्त हैं

टीका :यहाँ दोनों नयोंका सफलपना कहा है

भगवान अर्हत् परमेश्वरने दो नय कहे हैं : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक द्रव्य ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक है और पर्याय ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक है एक नयका अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करनेयोग्य नहीं है किन्तु उन दोनों नयोंका अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करनेयोग्य है सत्ताग्राहक (द्रव्यकी सत्ताको ही ग्रहण करनेवाले) शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके बलसे पूर्वोक्त व्यंजनपर्यायोंसे मुक्त तथा अमुक्त (सिद्ध तथा संसारी) समस्त जीवराशि सर्वथा व्यतिरिक्त ही है क्यों ? ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया (शुद्धनयसे सर्व जीव वास्तवमें शुद्ध हैं )’’ ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे विभावव्यंजनपर्यायार्थिक नयके बलसे वे सर्व जीव (पूर्वोक्त व्यंजनपर्यायोंसे) संयुक्त हैं विशेष इतना किसिद्ध जीवोंके अर्थपर्यायों सहित परिणति है, परन्तु व्यंजनपर्यायों सहित परिणति नहीं है क्यों ? सिद्ध जीव सदा निरंजन होनेसे (प्रश्न :) यदि सिद्ध जीव सदा निरंजन हैं तो सर्व जीव द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दोनों नयोंसे संयुक्त हैं (अर्थात् सर्व जीवोंको दोनों नय लागू होते हैं ) ऐसा सूत्रार्थ (गाथाका अर्थ) व्यर्थ सिद्ध होता है (उत्तर :व्यर्थ सिद्ध नहीं होता क्योंकि) निगम अर्थात्

व्यतिरिक्त = भिन्न; रहित; शून्य ।