जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।’’
तथा हि — विकल्प; उसमें हो वह ❃नैगम । वह नैगमनय तीन प्रकारका है; भूत नैगम, वर्तमान नैगम और भावी नैगम । यहाँ भूत नैगमनयकी अपेक्षासे भगवन्त सिद्धोंको भी व्यंजनपर्यायवानपना और अशुद्धपना सम्भवित होता है, क्योंकि पूर्वकालमें वे भगवन्त संसारी थे ऐसा व्यवहार है । बहु कथनसे क्या ? सर्व जीव दो नयोंके बलसे शुद्ध तथा अशुद्ध हैं ऐसा अर्थ है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद्अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें चौथे श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] दोनों नयोंके विरोधको नष्ट करनेवाले, स्यात्पदसे अडिकत जिनवचनमें जो पुरुष रमते हैं, वे स्वयमेव मोहका वमन करके, अनूतन ( – अनादि) और कुनयके पक्षसे खण्डित न होनेवाली ऐसी उत्तम परमज्योतिको — समयसारको — शीघ्र देखते ही हैं ।’’
और (इस जीव अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार ❃
वर्तमानवत् संकल्पित करे (अथवा कहे), अथवा किंचित् निष्पन्नतायुक्त और किंचित् अनिष्पन्नतायुक्त
वर्तमान पर्यायको सर्वनिष्पन्नवत् संकल्पित करे (अथवा कहे), उस ज्ञानको (अथवा वचनको) नैगमनय
कहते हैं ।