४८ ]नियमसार
(मालिनी)
अथ नययुगयुक्तिं लंघयन्तो न सन्तः
परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमत्तद्विरेफाः ।
सपदि समयसारं ते ध्रुवं प्राप्नुवन्ति
क्षितिषु परमतोक्ते : किं फलं सज्जनानाम् ।।३६।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव -
विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ जीवाधिकारः प्रथमश्रुतस्कन्धः ।।
मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : — )
[श्लोेकार्थ : — ] जो दो नयोंके सम्बन्धका उल्लंघन न करते हुए परमजिनके
पादपंकजयुगलमें मत्त हुए भ्रमर समान हैं ऐसे जो सत्पुरुष वे शीघ्र समयसारको अवश्य
प्राप्त करते हैं । पृथ्वीपर पर मतके कथनसे सज्जनोंको क्या फल है (अर्थात् जगतके जैनेतर
दर्शनोंके मिथ्या कथनोंसे सज्जनोंको क्या लाभ है )? ३६ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके
फै लाव रहित देहमात्र जिनको परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें)
जीव अधिकार नामका प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।