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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(मालिनी)
इति जिनपतिमार्गाद् बुद्धतत्त्वार्थजातः
त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च ।
त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च ।
भजतु परमतत्त्वं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तर्निर्विकल्पे समाधौ ।।४३।।
परविरहितमन्तर्निर्विकल्पे समाधौ ।।४३।।
(अनुष्टुभ्)
पुद्गलोऽचेतनो जीवश्चेतनश्चेति कल्पना ।
साऽपि प्राथमिकानां स्यान्न स्यान्निष्पन्नयोगिनाम् ।।४४।।
(उपेन्द्रवज्रा)
अचेतने पुद्गलकायकेऽस्मिन्
सचेतने वा परमात्मतत्त्वे ।
सचेतने वा परमात्मतत्त्वे ।
न रोषभावो न च रागभावो
भवेदियं शुद्धदशा यतीनाम् ।।४५।।
भवेदियं शुद्धदशा यतीनाम् ।।४५।।
सिद्ध होता है ।
[अब २९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार जिनपतिके मार्ग द्वारा तत्त्वार्थसमूहको जानकर पर ऐसे समस्त चेतन और अचेतनको त्यागो; अन्तरंगमें निर्विकल्प समाधिमें परविरहित (परसे रहित) चित्चमत्कारमात्र परमतत्त्वको भजो ।४३।
[श्लोेकार्थ : — ] पुद्गल अचेतन है और जीव चेतन है ऐसी जो कल्पना वह भी प्राथमिकोंको (प्रथम भूमिकावालोंको) होती है, निष्पन्न योगियोंको नहीं होती (अर्थात् जिनका योग परिपक्व हुआ है उनको नहीं होती) ।४४।
[श्लोेकार्थ : — ] (शुद्ध दशावाले यतियोंको) इस अचेतन पुद्गलकायमें द्वेषभाव नहीं होता या सचेतन परमात्मतत्त्वमें रागभाव नहीं होता; — ऐसी शुद्ध दशा यतियोंकी होती है ।४५।