गमणणिमित्तं धम्ममधम्मं ठिदि जीवपोग्गलाणं च ।
अवगहणं आयासं जीवादीसव्वदव्वाणं ।।३०।।
गमननिमित्तो धर्मोऽधर्मः स्थितेः जीवपुद्गलानां च ।
अवगाहनस्याकाशं जीवादिसर्वद्रव्याणाम् ।।३०।।
धर्माधर्माकाशानां संक्षेपोक्ति रियम् ।
अयं धर्मास्तिकायः स्वयं गतिक्रियारहितः दीर्घिकोदकवत् । स्वभावगतिक्रिया-
परिणतस्यायोगिनः पंचह्रस्वाक्षरोच्चारणमात्रस्थितस्य भगवतः सिद्धनामधेययोग्यस्य षट्कापक्रम-
विमुक्त स्य मुक्ति वामलोचनालोचनगोचरस्य त्रिलोकशिखरिशेखरस्य अपहस्तितसमस्तक्लेशा-
वासपंचविधसंसारस्य पंचमगतिप्रान्तस्य स्वभावगतिक्रियाहेतुः धर्मः, अपि च षट्कापक्रम-
कहानजैनशास्त्रमाला ]अजीव अधिकार[ ६३
गाथा : ३० अन्वयार्थ : — [धर्मः ] धर्म [जीवपुद्गलानां ] जीव-पुद्गलोंको
[गमननिमित्तः ] गमनका निमित्त है [च ] और [अधर्मः ] अधर्म [स्थितेः ] (उन्हें)
स्थितिका निमित्त है; [आकाशं ] आकाश [जीवादिसर्वद्रव्याणाम् ] जीवादि सर्व द्रव्योंको
[अवगाहनस्य ] अवगाहनका निमित्त है ।
टीका : — यह, धर्म - अधर्म - आकाशका संक्षिप्त कथन है ।
यह धर्मास्तिकाय, बावड़ीके पानीकी भाँति, स्वयं गतिक्रियारहित है । मात्र (अ, इ,
उ, ऋ, लृ — ऐसे) पाँच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारण जितनी जिनकी स्थिति है, जो ‘सिद्ध’
नामके योग्य हैं, जो छह १अपक्रमसे विमुक्त हैं, जो मुक्तिरूपी सुलोचनाके लोचनका विषय
हैं (अर्थात् जिन्हें मुक्तिरूपी सुन्दरी प्रेमसे निहारती है ), जो त्रिलोकरूपी २शिखरीके शिखर
हैं, जिन्होंने समस्त क्लेशके घररूप पंचविध संसारको ( – द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और
भावके परावर्तनरूप पाँच प्रकारके संसारको) दूर किया है और जो पंचमगतिकी सीमा पर
१ – संसारी जीवोंको अन्य भवमें उत्पन्न होनेके समय ‘छह दिशाओंमें गमन’ होता है उसे ‘छह अपक्रम’
कहनेमें आता है ।
२ – शिखरी = शिखरवन्त; पर्वत ।
जो जीव-पुद्गल, गमन - स्थितिमें हेतु धर्म अधर्म है ।
आकाश जो सब द्रव्यका अवकाश हेतुक द्रव्य है ।।३०।।