Niyamsar (Hindi).

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युक्तानां संसारिणां विभावगतिक्रियाहेतुश्च यथोदकं पाठीनानां गमनकारणं तथा तेषां
जीवपुद्गलानां गमनकारणं स धर्मः सोऽयममूर्तः अष्टस्पर्शनविनिर्मुक्त : वर्णरसपंचकगंध-
द्वितयविनिर्मुक्त श्च अगुरुकलघुत्वादिगुणाधारः लोकमात्राकारः अखण्डैकपदार्थः सहभुवोः
गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाश्चेति वचनादस्य गतिहेतोर्धर्मद्रव्यस्य शुद्धगुणाः शुद्धपर्याया भवन्ति
अधर्मद्रव्यस्य स्थितिहेतुर्विशेषगुणः अस्यैव तस्य धर्मास्तिकायस्य गुणपर्यायाः सर्वे भवन्ति
आकाशस्यावकाशदानलक्षणमेव विशेषगुणः इतरे धर्माधर्मयोर्गुणाः स्वस्यापि सद्रशा इत्यर्थः
लोकाकाशधर्माधर्माणां समानप्रमाणत्वे सति न ह्यलोकाकाशस्य ह्रस्वत्वमिति
६४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
हैंऐसे अयोगी भगवानको स्वभावगतिक्रियारूपसे परिणमित होने पर
स्वभावगतिक्रियाका हेतु धर्म है और छह अपक्रमसे युक्त ऐसे संसारियोंको वह (धर्म)
विभावगतिक्रियाका हेतु है जिसप्रकार पानी मछलियोंको गमनका कारण है, उसीप्रकार
वह धर्म उन जीव - पुद्गलोंको गमनका कारण (निमित्त) है वह धर्म अमूर्त, आठ स्पर्श
रहित, तथा पाँच वर्ण, पाँच रस और दो गंध रहित, अगुरुलघुत्वादि गुणोंके आधारभूत,
लोकमात्र आकारवाला (
लोकप्रमाण आकारवाला), अखण्ड एक पदार्थ है ‘‘सहभावी
गुण हैं और क्रमवर्ती पर्यायें हैं’’ ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे गतिके हेतुभूत इस
धर्मद्रव्यको शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायें होती हैं
अधर्मद्रव्यका विशेषगुण स्थितिहेतुत्व है इस अधर्मद्रव्यके (शेष) गुण-पर्यायों
जैसे उस धर्मास्तिकायके (शेष) सर्व गुण - पर्याय होते हैं
आकाशका, अवकाशदानरूप लक्षण ही विशेषगुण है धर्म और अधर्मके शेष गुण
आकाशके शेष गुणों जैसे भी हैं
इसप्रकार (इस गाथाका) अर्थ है
(यहाँ ऐसा ध्यानमें रखना कि) लोकाकाश, धर्म और अधर्म समान प्रमाणवाले
होनेसे कहीं अलोकाकाशको न्यूनताछोटापन नहीं है (अलोकाकाश तो अनन्त है)
[अब ३०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
स्वभावगतिक्रिया तथा विभावगतिक्रियाका अर्थ पृष्ठ२३ पर देखें
अपक्रमका अर्थ देखो पृष्ठ ६३में फु टनोट