यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवीणम् ।
प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोकः ।।४६।।
व्यवहारकालः । ताद्रशैरसंख्यातसमयैः निमिषः, अथवा नयनपुटघटनायत्तो निमेषः ।
[श्लोेकार्थ : — ] यहाँ ऐसा आशय है कि — जो (द्रव्य) गमनका निमित्त है, जो (द्रव्य) स्थितिका कारण है, और दूसरा जो (द्रव्य) सर्वको स्थान देनेमें प्रवीण है, उन सबको सम्यक् द्रव्यरूपसे अवलोककर ( – यथार्थतः स्वतंत्र द्रव्य रूपसे समझकर) भव्यसमूह सर्वदा निज तत्त्वमें प्रवेश करो । ४६ ।
गाथा : ३१ अन्वयार्थ : — [समयावलिभेदेन तु ] समय और आवलिके भेदसे [द्विविकल्पः ] व्यवहारकालके दो भेद हैं [अथवा ] अथवा [त्रिविकल्पः भवति ] (भूत, वर्तमान और भविष्यके भेदसे) तीन भेद हैं । [अतीतः ] अतीत काल [संख्यातावलिहत- संस्थानप्रमाणः तु ] (अतीत) संस्थानोंके और संख्यात आवलिके गुणाकार जितना है ।