तथा चोक्तं पंचास्तिकायसमये — काल वह समयरूप व्यवहारकाल है । ऐसे असंख्य समयोंका निमिष होता है, अथवा आँख मिंचे उतना काल वह निमेष है । आठ निमेषकी काष्ठा होती है । सोलह काष्ठाकी कला, बत्तीस कलाकी घड़ी, साँठ घड़ीका अहोरात्र, तीस अहोरात्रका मास, दो मासकी ऋतु, तीन ऋतुका अयन और दो अयनका वर्ष होता है । ऐसे आवलि आदि व्यवहारकालका क्रम है । इसप्रकार व्यवहारकाल समय और आवलिके भेदसे दो प्रकारका है अथवा अतीत, अनागत और वर्तमानके भेदसे तीन प्रकारका है ।
यह (निम्नोक्तानुसार), अतीत कालका विस्तार कहा जाता है : अतीत सिद्धोंको सिद्धपर्यायके १प्रादुर्भावसमयसे पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहारकाल वह, उन्हें संसार - दशामें जितने संस्थान बीत गये उनके २जितना होनेसे अनन्त है । (अनागत सिद्धोंको मुक्ति होने तकका) अनागत काल भी अनागत सिद्धोंके जो मुक्तिपर्यन्त अनागत शरीर उनके बराबर है ।
गाथा द्वारा) कहा है कि : — १ – प्रादुर्भाव = प्रगट होना वह; उत्पन्न होना वह । २ – सिद्धभगवानको अनन्त शरीर बीत गये हैं; उन शरीरोंकी अपेक्षा संख्यातगुनी आवलियाँ बीत गई हैं ।
कहा है ।