‘‘समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती ।
मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
समयनिमिषकाष्ठा सत्कलानाडिकाद्याद्
दिवसरजनिभेदाज्जायते काल एषः ।
न च भवति फलं मे तेन कालेन किंचिद्
निजनिरुपमतत्त्वं शुद्धमेकं विहाय ।।४७।।
जीवादु पोग्गलादो णंतगुणा चावि संपदा समया ।
लोयायासे संति य परमट्ठो सो हवे कालो ।।३२।।
जीवात् पुद्गलतोऽनंतगुणाश्चापि संप्रति समयाः ।
लोकाकाशे संति च परमार्थः स भवेत्कालः ।।३२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]अजीव अधिकार[ ६७
‘‘[गाथार्थः — ] समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिनरात, मास, ऋतु, अयन
और वर्ष — इसप्रकार पराश्रित काल ( – जिसमें परकी अपेक्षा आती है ऐसा व्यवहारकाल)
है ।’’
और (३१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ): –
[श्लोेकार्थ : — ] समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिनरात आदि भेदोंसे यह
काल (व्यवहारकाल) उत्पन्न होता है; परन्तु शुद्ध एक निज निरुपम तत्त्वको छोड़कर, उस
कालसे मुझे कुछ फल नहीं है ।४७।
गाथा : ३२ अन्वयार्थ : — [संप्रति ] अब, [जीवात् ] जीवसे [पुद्गलतः च
अपि ] तथा पुद्गलसे भी [अनन्तगुणाः ] अनन्तगुने [समयाः ] समय हैं; [च ] और
[लोकाकाशे संति ] जो (कालाणु) लोकाकाशमें हैं, [सः ] वह [परमार्थः कालः भवेत् ]
परमार्थ काल है ।
रे जीव-पुद्गलसे समय संख्या अनन्तगुणा कही ।
कालाणु लोकाकाश स्थित जो, काल निश्चय है वही ।।३२।।