वर्तनलिङ्गमित्युक्त म् । अथ धर्माधर्माकाशकालानां स्वजातीयविजातीयबंधसम्बन्धाभावात् विभावगुणपर्यायाः न भवंति, अपि तु स्वभावगुणपर्याया भवंतीत्यर्थः । ते गुणपर्यायाः पूर्वं प्रतिपादिताः, अत एवात्र संक्षेपतः सूचिता इति ।
विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत् ।
भवतु भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तोः ।।५०।।
गाथा : ३३ अन्वयार्थ : — [जीवादिद्रव्याणाम् ] जीवादि द्रव्योंको [परिवर्तन- कारणम् ] परिवर्तनका कारण ( – वर्तनाका निमित्त) [कालः भवेत् ] काल है । [धर्मादि- चतुर्णां ] धर्मादि चार द्रव्योंको [स्वभावगुणपर्यायाः ] स्वभावगुणपर्यायें [भवन्ति ] होते हैं ।
टीका : — यह, कालादि शुद्ध अमूर्त अचेतन द्रव्योंके स्वभावगुणपर्यायोंका कथन है ।
मुख्यकालद्रव्य, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशकी ( – पाँच अस्तिकायोंकी) पर्यायपरिणतिका हेतु होनेसे उसका लिंग परिवर्तन है (अर्थात् कालद्रव्यका लक्षण वर्तनाहेतुत्व है) ऐसा यहाँ कहा है ।
अब (दूसरी बात यह कि), धर्म, अधर्म, आकाश और कालको स्वजातीय या विजातीय बन्धका सम्बन्ध न होनेसे उन्हें विभावगुणपर्यायें नहीं होतीं, परन्तु स्वभावगुणपर्यायें होतीं हैं — ऐसा अर्थ है । उन स्वभावगुणपर्यायोंका पहले प्रतिपादन किया गया है इसीलिये यहाँ संक्षेपसे सूचन किया गया है ।