एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अत्थिकाय त्ति ।
णिद्दिट्ठा जिणसमये काया हु बहुप्पदेसत्तं ।।३४।।
एतानि षड्द्रव्याणि च कालं मुक्त्वास्तिकाया इति ।
निर्दिष्टा जिनसमये कायाः खलु बहुप्रदेशत्वम् ।।३४।।
अत्र कालद्रव्यमन्तरेण पूर्वोक्त द्रव्याण्येव पंचास्तिकाया भवंतीत्युक्त म् ।
इह हि द्वितीयादिप्रदेशरहितः कालः, ‘समओ अप्पदेसो’ इति वचनात् ।अस्य हि
द्रव्यत्वमेव, इतरेषां पंचानां कायत्वमस्त्येव । बहुप्रदेशप्रचयत्वात् कायः । काया इव कायाः ।
पंचास्तिकायाः । अस्तित्वं नाम सत्ता । सा किंविशिष्टा ? सप्रतिपक्षा, अवान्तरसत्ता
कहानजैनशास्त्रमाला ]अजीव अधिकार[ ७१
रम्य दैदीप्यमान ( – स्पष्ट) विवरण विस्तारसे किया गया, वह जिनमुनियोंके चित्तको प्रमोद
देनेवाला षट्द्रव्यविवरण भव्य जीवको सर्वदा भवविमुक्तिका कारण हो ।५०।
गाथा : ३४ अन्वयार्थ : — [कालं मुक्त्वा ] काल छोड़कर [एतानि
षड्द्रव्याणि च ] इन छह द्रव्योंको (अर्थात् शेष पाँच द्रव्योंको) [जिनसमये ] जिनसमयमें
(जिनदर्शनमें) [अस्तिकायाः इति ] ‘अस्तिकाय’ [निर्दिष्टाः ] कहे गये हैं । [बहुप्रदेशत्वम् ]
बहुप्रदेशीपना [खलु कायाः ] वह कायत्व है ।
टीका : — इस गाथामें कालद्रव्यके अतिरिक्त पूर्वोक्त द्रव्य ही पंचास्तिकाय हैं ऐसा
कहा है ।
यहाँ (इस विश्वमें) काल द्वितीयादि प्रदेश रहित (अर्थात् एकसे अधिक प्रदेश
रहित) है, क्योंकि ‘समओ अप्पदेसाे (काल अप्रदेशी है )’ ऐसा (शास्त्रका) वचन है ।
इसे द्रव्यत्व ही है, शेष पाँचको कायत्व (भी) है ही ।
बहुप्रदेशोंके समूहवाला हो वह ‘काय’ है । ‘काय’ काय जैसे ( – शरीर जैसे
विन काल ये जिनधर्म वर्णित पाँच अस्तिकाय हैं ।
अरु वस्तुका वह बहु प्रदेशीपन नियमसे काय है ।।३४।।