९. आलोचना
१ – ३३
२१९ – २३३
मनथी परमात्मस्वरूपनुं चिंतन करतां अभीष्टनी प्राप्तिमां बाधा
आवी शकती नथी ................................................................... १ .................... २१९
सत्पुरुषो जिनचरणोनी आराधना केम करे छे ...................................... २ .................... २१९
जिनसेवाथी संसार-शत्रुनो भय रहेतो नथी .......................................... ३ .................... २२०
त्रणे लोकोमां सारभूत एक परमात्मा ज छे ........................................ ४ .................... २२०
अनन्त चतुष्टय स्वरूप परमात्माने जाणी लीधा पछी कांई
जाणवानुं बाकी रहेतुं नथी ........................................................ ५ .................... २२०
एक मात्र परमात्माने शरणे जवाथी बधुं ज सिद्ध थाय छे ................... ६..................... २२१
मन, वचन, काया अने कृत, कारित, अनुमोदनारूप नव स्थानो
द्वारा करवामां आवेलुं पाप मिथ्या थाव ...................................... ७ .................... २२१
सर्वज्ञ जिन जाणता होवा छतां पण दोषोनी आलोचना
आत्मशुद्धि माटे करवामां आवे छे .............................................. ८-९ ................. २२२
आगमानुसार असंख्यातनुं प्रायश्चित्त संभव नथी .................................. १० .................. २२२
जे निस्पृहतापूर्वक भगवानने देखे छे ते भगवाननी निकट
पहोंची जाय छे ..................................................................... ११ .................. २२३
मननुं नियंत्रण अतिशय कठण छे ...................................................... १२-१४......२२३-३३४
मन भगवान सिवाय बाह्य पदार्थो तरफ केम जाय छे .......................... १५ .................. २२५
सर्व कर्मोमां मोह ज अतिशय बळवान छे.......................................... १६ .................. २२५
जगतने क्षणभंगुर जोईने मन परमात्मा तरफ लगाडवुं जोईए ............... १७ ...................२२६
अशुभ, शुभ अने शुद्ध उपयोगनुं कार्य .............................................. १८ ...................२२६
हुं जे ज्योतिस्वरूप छुं ते केवी छे? ................................................... १९ .................. २२७
जीव अने परमात्मा वच्चे भेद करनार कर्म छे .................................... २० .................. २२७
शरीर अने तेनाथी संबंद्ध इन्द्रियो तथा रोग आदि पुद्गलस्वरूप
छे जे आत्माथी सर्वथा भिन्न छे .............................................. २१-२४......२२८-२२९
धर्मादि पांच द्रव्योमां एक पुद्गल ज राग-द्वेषने वशे कर्म – नोकर्मरूप
थईने जीवनुं अहित कर्या करे छे ............................................... २५-२६ ......२२९-२३०
साचुं सुख बाह्य विकल्पो छोडीने आत्मसन्मुख थवाथी थाय छे .............. २७-२८............. २३०
वास्तवमां द्वैतबुद्धि ज संसार अने अद्वैत ज मोक्ष छे ............................ २९ .................. २३१
आ कळिकाळमां चारित्रनुं परिपालन न थई शकवाथी आपनी
भक्ति ज संसारमांथी मारो उद्धार करे ....................................... ३० .................. २३१
विषय
श्लोक
पृष्ठांक
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