Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 2-3 (1. Dharmopadeshamrut).

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पण जाणे के समताभावथी आठ कर्मरूपी इन्धनने जलाववा माटे इच्छुक थईने भगवान
आदिनाथ जिनेन्द्र द्वारा करवामां आवेल ध्यानरूपी अग्निनो तणखो ज उत्पन्न थयो हतो. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचिद् द्रशो-
द्रर्श्यं यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न
तेनालम्बितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रद्रष्टी रहः
संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिनः ।।।।
अनुवाद : हाथथी करवा योग्य कोई पण कार्य बाकी न रहेवाथी जेमणे
पोताना बन्ने हाथ नीचे लटकावी दीधा हता, गमन करीने मेळववा योग्य कांई पण
कार्य न रहेवाथी जे गमनरहित थई गया हता. आंखो वडे जोवा योग्य कोई पण
वस्तु न रहेवाथी जेओ पोतानी द्रष्टि नाकनी अणी उपर ठेरवता हता, तथा कानने
सांभळवा योग्य कांई पण बाकी न रहेवाथी जे आकुळता रहित थईने एकान्त
स्थानमां रह्या हता; एवा ते ध्यानमां एकाग्रचित्त थयेला जिन भगवान जयवंत हो.
विशेषार्थ : अन्य समस्त पदार्थो तरफथी चिंता खसेडीने कोई एक ज पदार्थ तरफ तेने
नियमित करवी, तेने ध्यान कहेवामां आवे छे. आ ध्यान क्यांक एकांत स्थानमां ज करी शकाय छे.
जो उक्त ध्यान कायोत्सर्गवडे करवामां आवे तो तेमां बन्ने हाथ नीचे लटकता राखी द्रष्टि नाकनी
अणी उपर राखवामां आवे छे. आ ध्याननी अवस्था लक्षमां राखीने ज अहीं एम कहेवामां आव्युं
छे के ते वखते जिन भगवानने न हाथ वडे करवा योग्य कांई कार्य बाकी कह्युं हतुं, न गमन वडे
प्राप्त करवा योग्य धनादिनी अभिलाषा शेष हती न कोई पण द्रश्य तेमनी आंखोने रुचिकर बाकी
रह्युं हतुं अने न कोई गीत आदि पण तेमना कानने मुग्ध करे एवुं बाकी रह्युं हतुं. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
रागो यस्य न विद्यते क्कचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात्
अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्द्वैषोऽपि संभाव्यते
तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणा-
मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः
।।।।
अनुवाद : जे अरिहंत परमेष्ठीने परिग्रहरूपी पिशाच रहित थई जवाने
[ पद्मनन्दि-पंचविंशतिः