आदिनाथ जिनेन्द्र द्वारा करवामां आवेल ध्यानरूपी अग्निनो तणखो ज उत्पन्न थयो हतो. १.
कार्य न रहेवाथी जे गमनरहित थई गया हता. आंखो वडे जोवा योग्य कोई पण
वस्तु न रहेवाथी जेओ पोतानी द्रष्टि नाकनी अणी उपर ठेरवता हता, तथा कानने
सांभळवा योग्य कांई पण बाकी न रहेवाथी जे आकुळता रहित थईने एकान्त
स्थानमां रह्या हता; एवा ते ध्यानमां एकाग्रचित्त थयेला जिन भगवान जयवंत हो.
जो उक्त ध्यान कायोत्सर्गवडे करवामां आवे तो तेमां बन्ने हाथ नीचे लटकता राखी द्रष्टि नाकनी
अणी उपर राखवामां आवे छे. आ ध्याननी अवस्था लक्षमां राखीने ज अहीं एम कहेवामां आव्युं
छे के ते वखते जिन भगवानने न हाथ वडे करवा योग्य कांई कार्य बाकी कह्युं हतुं, न गमन वडे
प्राप्त करवा योग्य धनादिनी अभिलाषा शेष हती न कोई पण द्रश्य तेमनी आंखोने रुचिकर बाकी
रह्युं हतुं अने न कोई गीत आदि पण तेमना कानने मुग्ध करे एवुं बाकी रह्युं हतुं. २.
अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्द्वैषोऽपि संभाव्यते
मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः