सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप उत्कृष्ट रत्नत्रयना भेदथी त्रण प्रकारनो तथा उत्तम
क्षमा, उत्तम मार्दव आदिना भेदथी दस प्रकारनो पण छे. परंतु निश्चयथी तो मोहना
निमित्ते उत्पन्न थतां मानसिक विकल्पोथी तथा वचन अने शरीरना संसर्गथी पण
रहित जे शुद्ध आनंदरूप आत्मानी परिणति थाय छे तेने ज ‘धर्म’ नामे कहेवामां
आवे छे.
आत्मानी परिणतिने ज कहेवामां आवे छे. ७.
मूलं धर्मंतरोरनश्वरपदारोहैकनिःश्रेणिका
धिङ्नामाप्यपदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः
संपदाओनी मुख्य जननी अर्थात् उत्पादक छे; धर्मरूपी वृक्षनुं मूळ छे, तथा अविनश्वर
पद अर्थात् मोक्ष महेलमां चडवानी अपूर्व निसरणीनुं काम करे छे. निर्दय पुरुषनुं
नाम लेवुं पण निन्द्य छे, तेना माटे बधे दिशाओ शून्य जेवी छे.
प्राणीदया थतां ज उत्तम व्रत, सुख अने समीचीन संपदाओ तथा अंते मोक्ष पण प्राप्त थाय छे;
माटे ज धर्मात्माओनुं ए प्रथम कर्तव्य छे के ते समस्त प्राणीधारीओ प्रत्ये दयाभाव राखे. जे
प्राणी निर्दयताथी जीवघातनी प्रवृत्ति करे छे तेनुं नाम लेवुं पण खराब समजवामां आवे छे. तेने
क्यांय पण सुख सामग्री प्राप्त थवानी नथी. तेथी सत्पुरुषोने आ पहेलो उपदेश छे के तेमणे समस्त
प्राणीओ प्रत्ये दयायुक्त आचरण करवुं. ८.