९४ ][ पंचस्तोत्र
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननीगर्भान्धकूपोदरा –
दद्योद्घाटितदृष्टिरस्मि फलवज्जन्मास्मि चाद्य स्फु टम् ।
त्वामद्राक्षमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयी –
नेत्रेन्दीवरकाननेन्दुममृतस्यन्द्रिप्रभाचन्द्रिकम् ।।३।।
अर्थ : — हे त्रिलोकीनाथ! आप त्रणे लोकना जीवोना नेत्ररूपी
कुमुदवनने विकसित करवा माटे चन्द्र समान छो अने आपनी कांतिरूपी
चांदनी अमृत वरसावे छे. मोक्षपदना सुखनी प्राप्ति माटे आवा आपना
दर्शन करीने हुं एम मानुं छुं के हुं, माताना गर्भरूपी अंधारिया कूवामांथी
आजे ज नीकळ्यो छुं, आजे ज मारा नेत्रो खूल्यां छे अने आजे ज मारो
जन्म सफळ थयो छे. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
निःशेषत्रिद्रशेन्दशेखर शिखारत्नप्रदीपावली –
सान्द्रीभूतमृगेन्द्रविष्टरतटीमाणिक्यदीपावलिः ।
क्वेयं श्रीः क्व च निःस्पृहत्वमिदमित्यूहातिगस्त्वादृशः ।
सर्वज्ञानदृशश्चरित्रमहिमां लोकेश लोकोत्तरः ।।४।।
अर्थ : — हे त्रिभुवनपति! समस्त इन्द्रोना मुगटना अग्रभागमां
लागेला रत्नरूपी दीपकोनी पंक्तिथी सिंहासननी किनारीओ पर लागेला
मणिमय दीपकोनी पंक्ति जेमां सघन थई गई छे एवी आ समवशरणरूप
विभूति क्यां अने आपनी आ परम उदासीनता क्यां? तेथी हे
त्रिभुवननाथ! आपना जेवा सर्वज्ञानी, सर्वदर्शीओना लोकमां अतिशयताने
पामेल चारित्रनो महिमा तर्कनो विषय नथी. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
राज्यं शासनकारिनाकपति यत्यक्तं तृणावज्ञया
हेलानिर्दलितत्रिलोकमहिमा यन्मोहमल्लो जितः ।