९६ ][ पंचस्तोत्र
संसाररूपी सर्पनुं झेर उतारवा माटे मणिस्वरूप छे, जे भव्यजीव ते गुणोनुं
कर्ण अने हृदयना आभूषण बनावे छे अर्थात् धारण करे छे ते ज बुद्धिनो
पार पाम्या छे, ते ज गुणरूपी रत्नोना आभूषणोथी शोभे छे अने ते
ज जीव निश्चयथी प्रशंसाने योग्य छे. ७.
(मालिनी)
जयति दिविजवृन्दान्दोलितैरिन्दुरोचि –
र्निचयरुचिमिरुच्चैश्चामरैर्वीज्यमानः ।
जिनपतिरनुरज्यन्मुक्ति साम्राज्यलक्ष्मी –
युवतिनवकटाक्षक्षेपलीलां दधानैः ।।८।।
अर्थ : — हे भगवान! चन्द्रना किरणो समान निर्मळ कांति
धारण करनार तथा अनुराग करनारी मोक्षनी साम्राज्यलक्ष्मी रूपी
युवतीओनी कटाक्षलीलानी शोभा धारण करनार एवा उन्नत चामर देवो
द्वारा जेमना उपर ढोळवामां आवे छे एवा श्री जिनेन्द्रदेव! आप सदा
जयवंत हो. ८.
(स्रग्धरा)
देवः श्वेतातपत्रत्रयचमरिरूहाशोकभाश्यक्रभाषा –
पुष्पौद्यासारसिंहासनसुरपटहैरष्टभिः प्रातिहार्यैः ।
साश्चर्यैर्भ्राजमानः सुरमनुजसभाम्भोजिनी भानुमाली
पायान्नः पादपीठीकृतसकलजगत्पालमौलिर्जिनेन्द्रः ।।९।।
अर्थ : — त्रण सफेद छत्र, चामर, अशोकवृक्ष, भामंडळ,
दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, सिंहासन अने देवदुंदुभिरूप आश्चर्यकारी आठ
प्रातिहार्योथी शोभता, देव अने मनुष्योनी सभारूपी कमलिनीने विकसित
करवा माटे सूर्यसमान तथा समस्त इन्द्र अने राजाओना मुगटोने पोताना
चरणोनुं आसन बनावनार जिनेन्द्रदेव आपणा सौनी रक्षा करो. ९.