जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र ][ ९७
नृत्यत्स्वर्दन्तिदन्ताम्बुरुहवननटन्नाकनारीनिकायः
सद्यस्त्रलोक्ययात्रोत्सवकरनिनदातोद्यन्निलिम्पः ।
हस्ताम्भोजातलीलाविनिहित सुमनोद्रमरम्यामरस्त्री –
काम्यः कल्याणपूजाविधिषु विजयते देव देवागमस्ते ।।१०।।
अर्थ : — हे श्री जिनेन्द्रदेव! आपना कल्याण पूजामहोत्सवमां,
नृत्य करता ऐरावत हाथीना दांत उपर रहेल कमलवनमां नृत्य करती
देवांगनाओना समूहथी शोभता, तत्काळ त्रणे लोकमां यात्राना उत्सवनी
ध्वनि करता वाजिंत्रोथी हर्षित थयेला देवोथी सुशोभित अने हस्तकमळोमां
लीलापूर्वक धारण करेली पुष्पोनी माळाओथी मनोहर देवांगनाओ द्वारा
सुन्दर देवोनुं आगमन जयवंत वर्तो. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
चक्षुष्मानहमेव देव भुवने नेत्रामृतस्यन्दिनं
त्वद्वक्त्रेन्दुमतिप्रसाद सुमगैस्तेजोभिरूद्भासितम् ।
तेनालोकयता मयाऽनतिचिराच्चक्षुः कृतार्थीकृतं
द्रष्टव्यावधिवीक्षणव्यतिकरव्याजृम्भमाणोत्सवम् ।।११।।
अर्थ : — हे जिनदेव! नेत्रोमांथी अमृत वरसावनार तथा अत्यंत
प्रसन्नताथी सुन्दर तेजथी सुशोभित आपना मुखचन्द्रने जोता में देखवा
योग्य पदार्थोनी सीमास्वरूप आपना मुखचन्द्रना दर्शनथी परम आनंदने
प्राप्त मारा नेत्रो तत्काळ कृतार्थ कर्या छे तेथी विश्वमां मारा ज नेत्रो
सफळ छे. ११.
(वसंततिलका)
कन्तोः सकान्तमपि मल्लमवैति कश्चि –
न्मुग्धो सुकुन्दमरविन्दजमिन्दुमौलिम् ।
मीघीकृतत्रिदशयोषिदपाङ्गपात –
स्तस्य त्वमेव विजयी जिनराज ! मल्ल ।।१२।।