जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र ][ ९९
भूपालस्वर्गपालप्रमुखनरसुरश्रेणिनेत्रालिमाला –
लीलाचैन्यस्य चैत्यालयमखिलजगत्कौमुदीन्दोर्जिनस्य ।
उत्तंसीभूतसेवाञ्जलिपुटनलिनीकुङ्मलास्त्रिः परीत्य
श्रीपादच्छाययापस्थितभवदवथुः संश्रितोऽस्मी व मुक्तिम् ।।१५।।
अर्थ : — हे स्वामी! आप चक्रवर्ती अने देवेन्द्र जेमां मुख्य छे
एवा मनुष्य अने देवसमूहना नेत्ररूपी भ्रमरोनी क्रीडा माटे चैत्यवृक्ष
समान छो. समस्त संसाररूपी कौमुदी माटे चन्द्र समान छो एवा श्री
जिनेन्द्रदेवना मंदिरनी त्रण प्रदक्षिणा लईने ज्यारे हुं भक्तिथी बन्ने हाथ
जोडुं छुं त्यारे मने एम लागे छे के आपना श्रीचरणनी छायाद्वारा
संसारनो बधो ताप दूर थई गयो छे अने में मुक्तिनी ज प्राप्ति करी
लीधी छे. १५.
(वसंततिलिका)
देव त्वदङ्ध्रिनखमण्डलदर्पणेऽस्मि –
न्नर्ध्ये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्त्रः ।
श्रीकीर्तिकान्ति घृतिसङ्गमकारणानि,
भव्यो न कानि लभते शुभमङ्गलानि ।।१६।।
अर्थ : — हे जिनदेव! परम पूज्य तथा स्वभावथी ज मनोहर
आपना नखमंडलरूपी दर्पणमां जे भव्यजीव लांबा समय सुधी आपनुं
मुख जुए छे ते लक्ष्मी, कीर्ति, कांति अने धैर्यनी प्राप्तिना कारण
स्वरूप कया कया शुभ मंगलो पामतो नथी? अर्थात् बधा मंगल प्राप्त
करे छे. १६.
(मालिनी)
जयति सुरनरेन्द्रश्रीसुधानिर्झरिण्याः
कुलधरणिधरोऽयं जैनचैत्याभिरामः ।