१०० ][ पंचस्तोत्र
प्रविपुलफलधर्मानोकहाग्रप्रवाल –
प्रसरशिखरशुम्मत्केतनः श्रीनिकेतः ।।१७।।
अर्थ : — हे जिनेन्द्र भगवान! आपनुं चैत्यालय जयवंत हो. जे
देवेन्द्र अने राजाओनी लक्ष्मीरूपी अमृतझरणांनी उत्पत्ति माटे
कुलाचलस्वरूप छे, अत्यंत गाढ फळवाळा धर्मरूपी वृक्षनी टोच उपर रहेला
पांदडाओना समूहनी अणीनी जेम जेना उपर ध्वज शोभे छे अने जे
लक्ष्मीनुं घर छे. १७.
(मालिनी)
विनमदमरकान्ताकुन्तलाक्रान्तकान्ति –
स्फु रितनखमयूखद्योतिताशान्तरालः ।
दिविजमनुजराजव्रातपूज्यक्रमाब्जो
जयति विजितकर्माराजिजालो जिनेन्द्रः ।।१८।।
अर्थ : — जेमने नमस्कार करती देवांगनाओना केशथी व्यापेली
कान्तिथी शोभता चरणोना नखोथी दीप्तिथी दिशाओना बधा भाग
प्रकाशमान छे, जेमना चरणकमळ देवेन्द्र अने नरेन्द्रोना समूहथी पूजवाने
योग्य छे तथा जेमणे कर्म (राग-द्वेषादि भाव) रूपी शत्रुओने जीती लीधा
छे एवा श्री जिनेन्द्रदेव जयवंत हो. १८.
(वसंततिलिका)
सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमङ्गलाय
दृष्टव्यमस्ति यदि मङ्गलमेव वस्तु ।
अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वक्त्रं
त्रैलोक्यमङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम् ।।१९।।
अर्थ : — हे नाथ! सुईने उठेला सुंदर मुखवाळा पुरुषे जो
सुमंगलनी प्राप्ति माटे मंगलरूप वस्तु ज होवी जोईए तो बीजानुं शुं