जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र ][ १०१
काम छे? आ लोकमां केवळ आपनुं मुख ज जोवुं जोईए केम के ते त्रण
भुवनना मंगलोनुं घर छे. १९.
(शार्दूलविक्रीडित)
त्वं धर्मोदयतापसाश्रमशुकस्त्वं काव्यबन्धक्रम –
क्रीडानन्दनकोकिलस्त्वमुचितः श्रीमल्लिकाषट्पदः ।
त्वं पुन्नागकथारविन्दसरसी हंसस्त्वमुत्तंसकैः
कैर्भूपाल न धार्यसे गुणमणिस्रिड्मालिभिर्मौलिभिः ।।२०।।
अर्थ : — हे पृथ्वीनाथ! आप धर्मना अभ्युदयरूपी तपोवनना
पोपट छो, काव्यरचना निर्माणना अनुक्रमरूप आप ज छो अर्थात्
काव्यरचनानी शोभा आपना चारित्रथी आप ज वधारो छो, क्रीडारूपी
नंदनवनमां आप ज कोयल समान छो, मोक्षलक्ष्मीरूप मालतीना आप
भ्रमर छो, उत्तम पुरुषोनी कथारूप कमल सरोवरना आप हंस छो
अने जेम पोतानी शोभा वधारनार पुरुष माळाओथी शोभता
मुगट पोताना मस्तक उपर धारण करे छे तेवी ज रीते पोते
पोताने उत्तम बनावनार पुरुषो आपने पोताना मस्तक उपर धारण करे
छे. २०.
(मालिनी)
शिवसुखमजरश्रीसङ्गमं चाभिलष्य
स्वमभिनियमयन्ति क्लेशपाशेन केचित् ।
वयमिह तु वचस्ते भूपतेर्भावयन्त –
स्तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशामः ।।२१।।
हे भगवान! केटलाय मनुष्यो मोक्षसुख अने देवोनी विभूतिनी
प्राप्ति माटे पोतानी जातने दुःखरूपी बंधनोथी अर्थात् जातजातनी
कठिन तपस्या अने व्रत आदिना कठोर नियमोथी दुःखी करे छे छतां
पण तेमने प्राप्त करी शकता नथी परंतु अमे आ लोकमां हमेशां आप